Bodhidharma : आज बात उस महान भिक्षु की जिसने चीन को बदल डाला। जो भारत से चीन गया और फिर वहां पर ध्यान संप्रदाय की नींव रखी। भारत के इस महान भिक्षु ने चीन को kung Fu भी दिया। तो आइए जानते है उस महान भिक्षु ( Bodhidharma ) से जुड़े रहस्य के बारे में
Bodhidharma का जन्म दक्षिण भारत के पल्लव राज्य के कांचीपुरम के शाही परिवार में हुआ था। वे राजा सुगंध के तीसरे बेटे थे। बोधिधर्मन ने छोटी उम्र में ही राजपाठ छोड़ दिया और वो भिक्षु बन गए। माना जाता है कि उन्होंने 22 साल की उम्र में मोक्ष की पहली अवस्था को प्राप्त किया था। वहीं बौद्ध भिक्षु बनने से पहले इनका नाम बोधितारा था, जिसे बदलकर उन्होंने बोधिधर्मन कर दिया। बोधिधर्मन ने भी चीन, जापान और कोरिया में बौद्ध धर्म की अलख जगाई। 520-526 ईस्वीं में चीन जाकर उन्होंने चीन में ध्यान संप्रदाय की नींव रखी थी जिसे च्यान या झेन कहते हैं। हालांकि आज बोधिधर्मन के बारे में भारतीयों से ज्यादा चीन के लोग जानते हैं। जबकि बोधिधर्मन एक भारतीय थे। वैसे तो बोधिधर्मन के बारे में इतिहास के पन्नों में कई बातें पढ़ने को मिलती है। लेकिन उनसे जुड़े कुछ ऐसे रहस्य भी है जिनको आप अभी तक आप जान नहीं पाएं होंगे तो चलिए हम आपको उन रहस्यों से दो चार करवाते है।
मार्शल आर्ट्स के ‘जनक’ Bodhidharma: महान भिक्षु बोधिधर्मन ने चीन में बौद्ध धर्म की नींव रखी। बोधिधर्मन प्राचीन भारत की कालारिपट्टू विद्या यानी की मार्शल आर्ट में निपुण थे। उन्हें आधुनिक मार्शल आर्ट्स कला के जन्मदाता कहा जाता है। बोधिधर्मन आयुर्वेद, सम्मोहन, मार्शल आर्ट और पंच तत्वों को काबू में करने की विद्या जानते थे। इन्होंने देवीय शक्तियों को भी हासिल कर रखा था। और अगर ये कहे की उन्होंने ही चीन को मार्शल आर्ट सिखाया तो गलत नहीं होगा। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन के अलावा जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली। आज भी यह विद्या केरल और कर्नाटक में प्रचलित है। वहीं, मार्शल आर्ट्स के इतिहास से कुछ पौराणिक कथाओं में बोधिधर्मन के अलावा महर्षि अगस्त्य और भगवान श्री कृष्ण का भी नाम जुड़ा हुआ है। शास्त्रों और धर्मग्रंथों के मुताबिक भगवान श्री कृष्ण ने जिस कला को इजाद किया था, वह अनूठी कला महान ऋषि अगत्स्य से होते हुए बोधिधर्म के पास आई थी और फिर बोधिधर्म ने मार्शल आर्ट्स के रुप में पूरी दुनिया में प्रचार-प्रसार किया।
महान बौद्ध भिक्षुओं में से एक एवं ऊर्जा से भरपूर बौद्ध धर्म प्रचारक बोधिधर्मन से जुड़ी एक अन्य कथा के मुताबिक, बोधिधर्मन जब शिओलिन मठ में जाकर अपने शिष्यों को ध्यान सिखा रहे थे, तब उन्होंने देखा कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण रुप से स्वस्थ नहीं है, और लंबे समय तक ध्यान करने में सक्षम नहीं है। तब बोधिधर्मन ने जो व्यायाम ध्यान के दौरान अपनी गुफा में किए थे, उसे शाओलिन मठ के लोगों को सिखाया, जो आगे चलकर मार्शल आर्ट/ कुंग फू के रुप में विख्यात हुए।
जब संकटहर्ता बने Bodhidharma: एक समय की बात है बोधिधर्मन को राजमाता के आदेश पर चीन भेजा गया। वहां पर उन्हें सत्य और ध्यान का प्रचार- प्रसार करना था। कठिन सफर के बाद बोधिधर्मन चीन के नानयिन गांव पहुंचे। हालांकि, उन्हें इस गांव में आसानी से एंट्री नहीं मिली, क्योंकि इस गांव के ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी, कि गांव में संकट आने वाला है और गांव वाले बोधिधर्मन को ही संकट समझ बैठे। बोधिधर्मन को लोगों ने गांव से बाहर का रास्ता दिखा दिया, जिसके बाद उन्होंने ने गांव के बाहर ही अपना ठिकाना बना लिया।
दरअसल, संकट तो एक जानलेवा महामारी के रूप में था। वहां के लोग बीमार पड़ने लगे। गांव में अफरा तफरी मच गई। बीमार लोगों को गांव से बाहर छोड़कर आया जाने लगा, ताकि किसी दूसरे शख्स को बीमारी ना हो जाए। ये बाद बोधिधर्मन को बता चली की गांव पर संकट के बादल टूट पड़े है तो उन्होंने गांव के लोगों की मदद की। बोधिधर्मन एक आयुर्वेदाचार्य थे। इसलिए उन्होंने इस महामारी से लोगों को बचा लिया। इसके बाद गांव वालों ने बोधिधर्मन को गांव में शरण दी ।
महामारी के बाद गांव वालों को लगा की संकट खत्म हो गया है लेकिन कुछ दिन बाद ही गांव पर दूसरा संकट आन पड़ा। लुटेरों ने गांव पर हमला कर दिया, चारों तरफ कत्लेआम मच गया। ऐसे में बोधिधर्मन ने अकेले ही कालारिपट्टू विद्या (मार्शल आर्ट) और सम्मोहन के बल पर गांव वालों को हथियारबंद लुटेरों के चुंगल से बचा लिया। और उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया।
अपनों ने दिया जहर! : बोधिधर्मन गांव वालों के लिए संकटहर्ता बन चुके थे। उनसे गांव वाले बहुत प्यार करते थे और उन्हें धापू बुलाया करते थे। लेकिन जब बोधिधर्मन ने गांववालों को बताया की वो वापस भारत जाना चाहते है, तो ज्योतिषियों ने गांव पर फिर से संकट आने की भविष्यवाणी की।
बोधिधर्मन के यहां से जाने की बात पर गांव वालों ने एक मीटिंग की, जिसमें ये फैसला हुआ कि अगर संकट से बचना है तो बोधिधर्मन को हर हाल में गांव में रोकना होगा। किसी भी कीमत पर उन्हें जिंदा या मुर्दा रोकना ही होगा। गांव वाले ये जानते थे की बोधिधर्मन अब लड़ नहीं सकते तो उन्होंने बोधिधर्मन को रोकने के लिए उनके खाने में जहर मिला दिया, पर बोधिधर्मन ये बात जान चुके थे की उनके खाने में जहर है।
बोधिधर्मन ने गांववालों से पूछा की तुम मुझे मारना क्यों चाहते हो ? तो गांववालों ने बताया कि हमारे ज्योतिषियों के मुताबिक आपके शरीर को यहीं दफना दिया जाए तो हमारा गांव हमेशा के लिए संकट से मुक्त हो जाएगा। बोधिधर्मन ने कहा, बस इतनी सी इच्छा। बोधी धर्मन ने गांव वालों की इस बात को स्वीकार कर लिया और उन्होंने जहर मिला वह भोजन खा लिया।
Bodhidharma ने की चाय की खोज: चीन का राजा वू भारत के किसी महान बौद्ध भिक्षु के आने का इंतजार कर रहा था। क्योंकि वह जानते थे कि भारत में एक से एक रहस्यमयी और चमत्कारिक ऋषि, मुनि, संत और भिक्षु रहते हैं। वू के मन में कई तरह के धार्मिक और दार्शनिक प्रश्न हिचकोले मार रहे थे। उसको किसी भविष्यक्ता ने कहा कि भारत से कोई महान भिक्षु आएगा और चीन का भाग्य बदल जाएगा। इसके बाद उसने उस भिक्षु के स्वागत के लिए भरपूर तैयारियां कर ली थी। लेकिन सालों तक कोई भिक्षु नहीं आया, कोई भी बौद्ध गुरू नहीं आया।
फिर एक दिन यह संदेश आया कि दो महान भिक्षु हिमालय पार करके चीन आएंगे और बौद्ध धर्म के संदेशों का प्रचार करेंगे। यह सुनकर राजा फिर से स्वागत की तैयारी में लग गया। कुछ काल के इंतजार के बाद, चीन राज्य की सीमा पर दो लोग नजर आए। ये थे बोधिधर्मन और उनका एक शिष्य।
राजा ने जब दोनों भिक्षुओं को देखा तो उनको थोड़ी निराशा हाथ लगी, क्योंकि राजा ने सुन रखा था कि भिक्षु बुजुर्ग, ज्ञानी और महान होंगे, लेकिन ऐसा नहीं था दोनों साधारण से दिख रहे थे, और उनकी उम्र भी 22 के आसपास की थी। खैर, राजा ने किसी तरह अपनी निराशा को छिपाया और दोनों भिक्षु का स्वागत किया। अपने शिविर में बुलाया और उन्हें बैठने का स्थान देकर भोजन की व्यवस्था की।
दोनों की थकान उतरने के बाद राजा ने उनसे वार्तालाप शुरू किया। वार्तालाप के बाद सवाल- जवाब का दौर शुरू हुआ तो राजा ने बोधिधर्मन से कहा, क्या मैं आपसे एक प्रश्न कर सकता हूं?
बोधिधर्मन ने कहा बिल्कुल कर सकते हैं। राजा वू ने पूछा, ‘इस सृष्टि का स्रोत क्या है?’ बोधिधर्मन राजा की ओर देखकर हंस दिए और बोले, ‘यह तो बड़ा मूर्खताभरा प्रश्न है! कोई और प्रश्न पूछिए।’
राजा वून ने खुद को अपमानित महसूस किया और निराश हो गया। लेकिन फिर उन्होंने खुद को संभालते हुए दूसरा प्रश्न पूछा- मेरे अस्तित्व का स्रोत क्या है?
ये सवाल सुनकर भी बोधिधर्मन जोर से हंसे और बोले, यह तो और भी मूर्खतापूर्ण सवाल है, कुछ और पूछिए।
राजा का गुस्सा सातवें आसमान पर था, लेकिन फिर भी उन्होंने खुद को संभाला और तीसरा प्रश्न पूछा। तीसरा प्रश्न बहुत ही अलग था। उसने पूछा, “बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए मैंने कई ध्यान कक्ष बनवाए, सैकड़ों बगीचे लगवाए और हजारों अनुवादकों को प्रशिक्षित किया। मैंने इतने सारे प्रबंध किए हैं। क्या मुझे मुक्ति मिलेगी?”
यह सुनकर बोधिधर्मन गंभीर हो गए। वह खड़े हुए और अपनी बड़ी-बड़ी आंखें राजा की आंखों में डालकर बोले, क्या! तुम और मुक्ति? तुम तो सातवें नरक में गिरोगे। (बौद्ध धर्म के मुताबिक, मस्तिष्क के सात स्तर होते हैं। सबसे निचले स्तर को सातवां नरक कहते हैं)
बोधी धर्मन का यह जवाब सुनकर राजा वू तो आगबबूला हो गया। उसने बोधी धर्मन को अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। बोधिधर्म को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। राजा वू के राज्य से निकाले जाने के बाद बोधिधर्मन पर्वतों में चले गए। वहां उन्होंने कुछ शिष्यों को इकट्ठा किया और पर्वतों में ही ध्यान करने लगे। जिस पहाड़ पर वे ध्यान करते थे उसे चाय कहते थे।
एक दिन उस पहाड़ी पर उन भिक्षुकों को कुछ अलग किस्म की पत्तियां दिखाई दी। बोधिधर्मन ने जांच-पड़ताल के बाद पाया कि अगर इन पत्तियों को उबालकर पिया जाए, तो इससे नींद भाग जाती है। इसे पीकर वे अब पूरी रात सतर्क रहकर ध्यान कर सकते थे और इस तरह से चाय की खोज हुई।
हालांकि एक दंतकथा के अनुसार चाय की उत्पत्ति बोधी धर्मन की पलकों के कारण हुई थी। दरअसल, ध्यान करते हुए एक दिन बोधिधर्मन सो गए थे जो गुस्से में उन्होंने अपनी पलके काट कर जमीन पर फेंक दी थी। जहां उन्होंने पलकें फेंकी थी वहां हरी पत्तियां उग आई जिसे बाद में चाय के रूप में जाना जाने लगा।
भारतीय गुरुओं में 28वें गुरू थे Bodhidharma : ओशो रजनीश ने बोधिधर्मन के बारे में बहुत कुछ कहा है। ओशो के अनुसार बौद्ध धर्म के ज्ञान को भगवान बुद्ध ने महाकश्यप से कहा। महाकश्यप ने आनंद से और इस तरह यह ज्ञान चलकर आगे बोधिधर्मन तक आया। बोधिधर्मन ज्ञान और गुरू -शिष्य परंपरा के 28वें गुरू थे।
उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-ति एक बोधिधर्मन से प्रेरित थे। बू-ति के निमन्त्रण पर बोधिधर्मन की उनसे नान-किंग में भेंट हुई। यहीं पर नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान का प्रचार-प्रसार किया। बोधिधर्मन चीन में नौ वर्ष तक एक दिवाल की तरफ मुंह करके बैठे रहे।
किसी ने एक दिन उनसे पूछा आप हमारी तरफ पीठ करके क्यों बैठे हैं? दिवाल की तरफ मुंह क्यों करते हैं? बोधिधर्मन में कहा जो मेरी आंखों में पढ़ने के योग्य होगा उसे ही देखूंगा। जब उसके आगमन होगा तब देखूंगा अभी नहीं। अभी तो दिवाल देखूं या तुम्हें देखूं एक ही बात है।
ओशो के मुताबिक नौ वर्ष बाद वह व्यक्ति आया जिसकी प्रतिक्षा बोधिधर्मन ने की थी। उसने अपना एक हाथ काटक बोधिधर्मन की ओर रख दिया और कहा जल्दी से इस ओर मुंह करो वर्ना गर्दन भी काट कर रख दूंगा। फिर क्षण भर भी बोधिधर्मन नहीं रुके और दिवाल की से उस व्यक्ति की ओर घुम गए और कहने लगे…तो तुम आ गए। मैं तुम्हारी ही प्रतिक्षा में था, क्योंकि जो अपना सबकुछ मुझे देने को तैयार हो वहीं मेरा संदेश झेल सकता है। इस व्यक्ति को बोधिधर्मन ने अपना संदेश दिया जो बुद्ध ने महाकश्यप को दिया था।
कौन था पहला शिष्य ?: बोधिधर्मन जब तक चीन में रहे मौन ही रहे और मौन रहकर ही उन्होंने ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना कर ध्यान के रहस्य को बताया। बाद में उन्होंने कुछ योग्य व्यक्तियों को चुना और अपने मन से उनके मन को बिना कुछ बोले शिक्षित किया। यही ध्यान-सम्प्रदाय कोरिया और जापान में जाकर विकसित हुआ।
बोधिधर्म के प्रथम शिष्य और उत्तराधिकारी का नाम शैन-क्कंग था, जिसे शिष्य बनने के बाद उन्होंने हुई-के नाम दिया। पहले वह कन्फ्यूशस मत का अनुयायी था। बोधिधर्मन की कीर्ति सुनकर वह उनका शिष्य बनने के लिए आया था। बोधिधर्मन का कोई ग्रंथ नहीं है, लेकिन ध्यान सम्प्रदाय की इतिहास पुस्तकों में उनके कुछ वचनों का उल्लेख मिलता है।
चीन में ‘ता मो’नाम से पूजे जाते हैं Bodhidharma : आपको बता दें कि कुंग-फू मार्शल आर्ट्स का प्रमुख अंग है, जिसे पूरी दुनिया के लोग चीन सीखने आते हैं, इस आधुनिक मार्शल आर्ट्स की प्रणाली को बोधिधर्मन द्वारा ही लाया गया था। जापान में बोधि धर्मन को दारुमा और चीन में ‘ता मो’ के नाम से जाना जाता है।
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