Kashmiri Gate History – दिल्ली का कश्मीरी गेट ( Kashmiri Gate, Delhi ) एक से बढ़कर एक नगीनों को समेटकर बैठा है. मुगलिया सल्तनत के दौर की ये जगह, अंग्रेजी हुकूमत के काल में भी पसंद बनी रही. यही वजह है कि यहां पर ब्रिटिशर्स ने दिल्ली का पहला चर्चा बनाया और सिविल लाइंस जैसा शानदार इलाका भी. दिल्ली के कश्मीरी गेट के इसी इतिहास ( Kashmiri Gate History ) को संजोने और आप तक पहुंचाने के मकसद से ट्रैवल जुनून ने इस जगह की सैर की और क्या क्या हमारे हाथ लगा, जहां जहां हम पहुंचे, वह आप तक लेकर आए हैं.
Kashmiri Gate History को जानने की शुरुआत करते हैं कश्मीरी गेट दरवाज़े से. कश्मीरी गेट, दिल्ली मेट्रो का ऐसा गोलचक्कर है, जहां 6 पटरियां मिल जाती हैं. इसी कश्मीरी गेट पर, मेट्रो स्टेशन से बाहर दिल्ली के इतिहास का झरोखा आज भी ज्यों का त्यों मौजूद है. इतिहास के इस कैनवस ( Kashmiri Gate History ) में सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत के किस्से ही दर्ज नहीं है बल्कि मुगलिया सल्तनत की कहानियां भी तैर रही हैं. कैमरा तो सिर्फ कुछ पलों को ही कैद कर पाता है लेकिन इस दरवाज़े ने 186 साल के टाइमलैप्स को कैद कर लिया है.
कभी फौजी बूटों और जांबाज़ स्वतंत्रता सेनानियों की की गूंज का गवाह रहा ये दरवाज़ा आज भी शान से खड़ा है. कश्मीरी गेट की चौखट से हर रोज कितने ही लोग गुज़र जाते हैं, इसे देखे बिना ही. इनमें से कितनों को पता होगा कि जिस कश्मीरी गेट पर वो मौजूद हैं, उसे इसी दरवाज़े से पहचान मिली है. पिछले हिस्से में आपको लग्ज़री टूरिस्ट बसें खड़ी दिख जाएंगी जो हर शाम को मनाली, शिमला के लिए निकलती हैं. दिल्ली से दूर जाने वाले टूरिस्टों ने क्या कभी दिल्ली के इस चिराग को गौर से देखा होगा? ये बड़ा सवाल है. आज खामोश खड़ा ये दरवाजा कितनी ही जंग, कत्लेआम, शहंशाहों और उनके बनते बिगड़ते दौर का गवाह रहा है.
कश्मीरी गेट दरवाज़े को 1835 में मिलिट्री इंजीनियर रॉबर्ट स्मिथ ने बनवाया था. इसे कश्मीरी गेट क्यों कहा गया ये भी जान लेते हैं. दरअसल, तब दिल्ली यहीं तक हुआ करती थी और इसके बाद यमुना नदी का इलाका था. कश्मीरी गेट से निकलकर उत्तर की तरफ जाने वाला रास्ता कश्मीर तक जाता था इसलिए इसे कश्मीरी गेट नाम दिया गया था. इस दरवाज़े की एक खासियत और भी है, और वो ये कि दिल्ली के तमाम ऐतिहासिक दरवाज़ों में ये एक ही दरवाजा ऐसा था जिसमें आने और जाने के लिए अलग अलग रास्ते दिए गए थे.
1857 की क्रांति में, मेरठ से दिल्ली की तरफ कूच करने वाली आंदोलनकारियों की टुकड़ी ने सबसे पहले इसी दरवाज़े पर कब्ज़ा किया था. हालांकि 14 सितंबर 1857 के दिन अंग्रेजों ने तड़के इस दरवाज़े पर भीषण हमला किया और इसे फिर से अपने कब्जे में ले लिया. हालांकि, इस जंग में इस गेट को खासा नुकसान पहुंचा. उस लड़ाई की कहानी और ब्रिटिश सैनिकों के नाम आज भी यहां दर्ज हैं. इसके लिए अब नई शिलापट्टिका भी लगा दी गई है. पुरानी हालांकि अब भी मौजूद हैं .
कश्मीरी गेट परिसर के अंदर मौजूद बैरकें आज भी हैं. मैंने इसकी दीवार को छूकर उस बीत चुके दौर का अहसास लेने की कोशिश की जो इस दरवाज़े को छूकर गुज़र चुका है.
Kashmiri Gate History की कड़ी में दूसरा नाम है निकल्सन रोड का. अब इस रास्ते को जानने की बारी है. ये रास्ता निकल्सन रोड कहलाता है. कश्मीरी गेट से निकलकर दाईं तरफ मुख्य सड़क से एक रास्ता अंदर की तरफ जाता है. ये आधा किलोमीटर लंबी सड़क कश्मीरी गेट ( Kashmiri Gate History ) को मोरी गेट से जोड़ती है. सड़क की एक तरफ शाहजहानाबाद शहर की सुरक्षा के लिए बनाई गई दीवार है जिसे मुगल शासक शाहजहां ने बनवाया था. और दूसरी तरफ ऑटो पार्ट्स और बिजली के सामान की दुकानें हैं. अब भारत जैसे देश में किसी अंग्रेज़ के नाम पर या अंग्रेजी नाम वाली सड़क हो तो इसका इतिहास भी जान लेना चाहिए.
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में दिल्ली की ब्रिटिश फौज का जिम्मा संभाल रहे थे ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकल्सन. मेरठ से आए हिन्दुस्तानी आन्दोलनकारियों ने कश्मीरी गेट के इस पूरे इलाके को अपने नियंत्रण में ले लिया था. ये जंग 14 सितंबर 1857 की सुबह निर्णायक दौर में पहुंची. अंग्रेजी सेना ने पूरी ताकत से कश्मीरी गेट पर नियंत्रण लिए आंदोलनकारियों पर धावा बोला. इस जंग में निकल्सन को गहरी चोट आई और वह इसी सड़क पर छिप छिपकर कुछ दूर तक आगे भागता रहा. वह यहां कई मर्तबा गिरा भी. हालांकि इस लड़ाई में जीत अंग्रेजों की हुई लेकिन निकल्सन नहीं बच सका और 23 सितम्बर 1857 के दिन उसकी मौत हो गई.
जॉन निकल्सन बेहतर प्रतिभाशाली था. नवभारत टाइम्स के अपने लेख में अमिताभ स. बताते हैं कि उसकी काबिलियत ऐसी थी कि उसने फौज के तीन रेंक एक ही झटके में जंप किए और कैप्टन से ब्रिगेडियर बन गया, जबकि आमतौर पर, तब कैप्टन को ब्रिगेडियर बनने में 15 साल का वक्त लगता था. जॉन निकल्सन मूलतः आयरलैंड का था और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का आर्मी अफसर था. मौत के वक्त उसकी उम्र महज 34 साल थी और वह अविवाहित था.
जॉन निकल्सन नजदीक ही ब्रिटिश काल में बनाए गए कब्रिस्तान में दफन है. कब्रिस्तान का नाम भी ’निकल्सन कब्रिस्तान’ ही है.
Kashmiri Gate History की कड़ी में तीसरा नाम है निकल्सन रोड का. निकल्सन रोड से वापस निकलने पर कश्मीरी गेट के ठीक सामने है RITZ सिनेमा. RITZ सिनेमा दिल्ली का सबसे पुराना फ़िल्म थियेटर है जिसमें आज भी फिल्में चलती हैं. मल्टिप्लेक्स का दौर आज आया है लेकिन कभी कश्मीरी गेट पर शान से खड़ा रिट्ज़ सिनेमा खुद दिल्ली की शान था. ये कश्मीरी गेट दरवाजे के ठीक सामने है. 1923 में जब ये चालू हुआ तब इसका नाम रिट्ज़ नहीं बल्कि कैपिटल था. इसमें मूक फिल्में भी लगी थीं. 1942 में इसका नाम बदलकर रिट्स कर दिया गया. इसके मालिक थे जगत नारायण सेठ. उन्होंने बागडोर संभालते ही इसका नाम बदल दिया.
तब रिट्ज में रिलीज फिल्मों में सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म ’संसार’ थी. तब फ्रंट की बाहरी बनावट आज से अलग थी. महलनुमा लुक थी और छत पर आसपास दो छतरियां बनी थीं. भीतर जाने के तीन गेट थे, जो आज भी हैं. साल 1960 में, फ्रंट को प्लेन लुक दी गई. ब से अब तक एक या दो बार पेंट का रंग जरूर बदला गया. अंदर स्क्रीन, ए सी और सीटों को मॉडर्नाइज़ किया गया और साउंड व प्रोजेक्शन सिस्टम को भी अपनाया गया.
‘रिट्ज’ की खासियत ये भी थी कि यहां औरतों के लिए स्पेशल सीटें रिजर्व रहती थीं. साठ के दशक में, मुस्लिम औरतें दरियागंज और चांदनी चौक से तांगे की सवारी करती ‘रिट्ज’ पहुंच जाया करती थीं. तब 10 आने (करीब 62 पैसे) की टिकट के लिए औरतों से सवा रुपये वसूले जाते थे. क्यों? क्योंकि यहां सेफ्टी सबसे ज़्यादा रहती थी. क्योंकि पुरानी दिल्ली के ‘जगत’, ‘जुबली’, ‘कुमार’, ‘मैजेस्टिक’ वगैरह सिनेमाहॉलों की बजाय ‘रिट्ज’ में औरतें खुद को ज्यादा महफूज समझती थीं. हालांकि तब ‘जगत’ में भी केवल महिलाओं के लिए सीटें सुरक्षित होती थीं, लेकिन वे वहां जाने से झिझकती थीं क्योंकि वहाँ उन्हें डर था कि कहीं उनके शौहर देख न लें. और हेलन का कैबरे देख मतवाले दर्शक सिक्के लुटाने से बाज नहीं आते थे।स्क्रीन की तरफ सिक्कों की बौछार होने लगती थी।एक-एक दर्शक दसेक आने (62 पैसे) की टिकट से ज्यादा तो पैसे ही लुटा आता था।शायद यहीं पहली ‘एडल्ट’ सर्टिफिकेट फिल्म प्रदर्शित की गई थी.
सन् 2000 में, मल्टीप्लेक्स सिनेमा के आने के बाद रिट्ज की रौनकें घटती गईं। शम्मी कपूर और सायरा बानो स्टारर ‘जंगली’ रिट्ज पर 40 हफ्तों से ज्यादा चलने वाली सबसे हिट फिल्मों में से एक थी। आजकल विजय नारायण सेठ अपने भाई वीरेन्द्र नारायण सेठ और बेटों रोहित सेठ, वरूण सेठ और विधुर सेठ के साथ देखरेख करते हैं। साठ, सत्तर और अस्सी के दशक तक जिस रिट्ज पर फिल्म देखना और फिर नजदीक ही ‘खैबर’ रेस्टोरेंट में डिनर करना स्टेट्स सिम्बल समझा जाता था, वो रिट्स आज ऐसा लगा जैसे अपनी विरानी पर गमगीन हो. अंदर हमें एक भी शख्स नहीं दिखा. बहुत पता करने पर ये तो पता चला कि सफाई कर्मी यहां आते हैं लेकिन हमें वो सफाईकर्मी भी नहीं दिखाई दिया.
Kashmiri Gate History की कड़ी में चौथा नाम है हैप्पी स्कूल, महल सराय का. अब हम बढ़ चले कश्मीरी गेट के बड़ा बाज़ार की तरफ. यहां की एक गली में है महल सराय और इसी महल सराय में 1939 से एक स्कूल चल रहा है जिसका नाम है हैप्पी स्कूल. मैंने यहां पहुंचने के लिए बहुत पसीना बहाया. एक बुजुर्ग शख्स ने जानकारी दी जिसके बाद यहां पहुंचा. यहां चलता तो है स्कूल लेकिन पूरा महल सराय आज भी सराय जैसा ही लगता है. जहां कभी मुसाफिर ठहरा करते थे.
गली के बाहर दीवार पर लगे पत्थर पर उर्दू में ‘धर्मशाला’ लिखा है और लिखा है ‘श्रीमती बहू कीता देवी’। लेकिन ज्यादातर लोग महल सराय ही पुकारते हैं. ऐसा कहा जाता है कि मुगल बादशाह शाहजहां अपने नवाब मेहमानों को यहीं ठहराते थे. यहां पर घोड़े, बग्घी बांधने के लिए तबेला भी हुआ करता था.
करीब 1000 वर्ग फुट में फैले महल सराय पर आज भी मुगलिया झलक दिखाई देती है. मेहराबदार दरवाजे, फूल-पत्तियों की नक्काशी, लकड़ी के दरवाजे और गोल रोशनदान भी. आपको एक बार तो ऐसा अहसास होगा कि आप किसी किले में तो नहीं. बालकनियां लकड़ी की हैं. बालकनी के लोहे के कलात्मक जंगले आज भी शोभा बढ़ा देते हैं. परिसर में, अर्से से कई घर और दुकानें हैं. बीच के हिस्से में हैप्पी स्कूल है, जो 1939 से चालू है
स्कूल के फादर बताते हैं कि पहले आसपास रिहायशी इलाका था तो बच्चे पढ़ने आते थे लेकिन अब नाम के ही बच्चे स्कूल में रह गए हैं. किसी क्लास में 2 , किसी में 5 और किसी में 15. ये स्कूल 10वीं तक का है. जब मैं यहां पहुंचा तो मुझे रोशनदानों पर और दीवारों पर रंग रोगन का काम होता दिखाई दिया. मैंने काम में लगे लोगों से पूछा कि क्या यहां कोई केयरटेकर है, उन्होंने कहा कि भैया हम ही हैं, हमसे ही बात कर लो. तभी स्कूल के फादर बाहर आए और उन्होंने मुझे पूरा परिसर घुमाया.
Kashmiri Gate History की कड़ी में पांचवां है दारा शिकोह लाइब्रेरी का. दारा शिकोह, मुगल सम्राट शाहजहां के सबसे प्यारे पुत्र थे. उन्हें मुगल सिंहासन का उत्तराधिकारी माना जाता था. अपने पिता की तरह दारा शिकोह ने भी वास्तुकला में गहरी रुचि दिखाई थी. उन्होंने कश्मीरी गेट के पास अपनी खुद की एक हवेली बनाई, जिसमें प्रसिद्ध दारा शिकोह पुस्तकालय था. यह पुस्तकालय, अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली के परिसर के अंदर है.
अंबेडकर यूनिवर्सिटी के शांत माहौल में दाखिल होने के बाद एक प्यारा सा रास्ता आपको दारा शिकोह लाइब्रेरी की तरफ लेकर जाता है. इसकी देखभाल दिल्ली सरकार का पुरातत्व विभाग करता है.
इतिहासकारों का मानना है कि राजकुमार की मृत्यु के बाद पुस्तकालय मुगल बच्चों के पुर्तगाली अध्यापिका, डोना जुलियाना को दिया गया था. 18वीं सदी में इसे नवाब सफदरजंग ने खरीद लिया था. मउसके बाद, परिसर को बाद में सर डेविड ओचटरलोनी के कब्जे वाले ब्रिटिश निवास में बदल दिया गया. इसके बाद परिसर को नगर निगम के स्कूल में तब्दील कर दिया गया.
हालांकि, बाद में आसपास के मुगल परिसर को अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली को आवंटित किया गया. 2011 में, शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार ने पुस्तकालय को एक राज्य संग्रहालय में पुनर्निर्मित करने के लिए इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (INTACH) के साथ सहयोग किया. इस वक्त इस लाइब्रेरी का काम चल रहा है और यहां किसी भी तरह की पुस्तक नहीं है. एक बार काम पूरा हो जाने पर इस लाइब्रेरी में पढ़ने की जगह, कला प्रतिष्ठान, वेबसाइट डिजाइनिंग, ऐप आधारित बहुभाषी आडियो-गाइड, वाई-फाई आदि की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी.
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