बांग्ला में चा, गुजराती में चा, मराठी में चहा, असम में सा, कन्नड़ में चाहा, मलयालम में चाया, उड़िया में चा, नाम अलग है लेकिन हर हिंदुस्तानी की सुबह इस चाय से ही होती है. कोई ग्रीन टी पीता है, कोई ब्लैक टी, किसी को हर्बल चाय भाती है, किसी को वाइट टी, लेकिन सभी शौकीनों ने क्या कभी ये जानने की कोशिश की है कि इस चाय की कहानी ( History of Tea in India ) क्या है, इस चाय की यात्रा क्या है. चाय की ट्रेवल स्टोरी में हम आपको बताएंगे चाय की भारत पहुंचने वाली यात्रा के बारे में……
इतिहास के आइने में चाय
एक वक्त था, जब धरती पर नक्शों की दूसरी पहचान पौधों और वनस्पतियों के नाम पर की जाने लगी थी. वह ऐसा वक्त था जब दो एम्पायर्स, चीन और ब्रिटेन के बीच दो फूलों की वजह से युद्ध छिड़ गया था. ये दो पौधे थे, पॉपी और कैमेलिया…
पॉपी, यानी पेपावेर सोमनीफेरम, जिसे अफीम में प्रोसेस किया जाता था. अठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता था. इस ड्रग को पैदा करने से लेकर इसकी मैन्युफैक्चरिंग भारत में होती थी. 1757 में भारत ग्रेट ब्रिटेन के अधिकार क्षेत्र वाला एक प्रिंसली स्टेट था. इस अफीम की मार्केटिंग पूर्ण रूप से इंग्लैंड अंपायर के संरक्षण में ईस्ट इंडिया कंपनी करती थी.
वहीं, कैमेलिया, यानी Camellia sinensis, जिसकी पहचान चाय के रूप में थी. अंपायर ऑफ चाइना का इसपर संपूर्ण एकाधिकार था. यह एकमात्र देश था, जो चाय उगाने, पत्तियां तोड़ने, प्रोसेस, कुक करने से लेकर मैन्युफैक्चर, होलसेल और उसे एक्सपोर्ट भी करता था. लगभग 200 सालों तक, ईस्ट इंडिया कंपनी चीन को अफीम बेचती रही और बदले में चाय खरीदती रही.
अफीम के बदले चाय के इस कारोबार में वक्त के साथ ब्रिटिश हुकूमत को घाटा होने लगा था. चाय के आयात पर जो टैक्स थे, उससे रेलवे, सड़क और एक उभर रहे औद्योगित राष्ट्र की जरूरतों को फंड किया जाता था. वहीं, दूसरी तरफ अफीम भी अंग्रेजों के लिए बराबर जरूरी था. इसके जरिए भारत के प्रबंधन को मदद मिलती थी. भारत उस वक्त महारानी विक्टोरिया के मुकुट का चमकता हीरा था.
अंग्रेजों को इस बात की उम्मीद थी, कि एक दिन भारत अपने पैरों पर जरूर खड़ा होगा. तीन देशों के बीच चल रहा ये ट्राएंगुलर ट्रेड, वर्ल्ड इकॉनमी के लिए एक तरह का इंजन था. लेकिन इसी बीच चीन की बड़ी आबादी अफीम की गिरफ्त में जाने लगी. इसी वजह से ब्रिटिश हुकूमत और चीन के बीच युद्ध हुआ जिसे ‘प्रथम अफीम युद्ध’ ( First Opium War ) के नाम से भी जाना जाता है.
दरअसल, 1729 में चीन के सम्राट ने अफीम की खरीद फरोख्त पर प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि इसके आदि हो चुके लोग इसके लिए घर का सामान तक बेचने लगे थे. अब चीन ने ब्रिटेन को मजबूर किया कि वो चांदी के बदले में चाय का व्यापार करे. ब्रिटेन के पास कोई और चारा न होने की वजह से उसे ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ा.
1785 के आसपास, इंग्लैंड चीन के कैंटोन ( अब ग्वांगझो Guangzhou ) से 60 लाख पाउंड की चाय हर साल आयात कर रहा था. इसके बदले में ब्रिटेन चीन को चांदी के सिक्के दे रहा था, जिससे खजाना खाली हो रहा था. 1830 के आसपास, ब्रिटेन में चाय की खपत कई गुना बढ़ चुकी थी. मुश्किल हालात का सामना कर रहे ब्रिटेन ने चीन को चाय के बदले अन्य सामान देने के पेशकश की जिसे चीन ने ठुकरा दिया.
उधर, अफीम का कम दाम मिलने की वजह से परेशान हो चुके किसान अब अफीम की स्मगलिंग करने लगे और उसे गैर सरकारी एजेंटों को बेचने लगे. अफीम का उत्पादन घटता देख अंग्रेजों ने गैर सरकारी एजेंटों पर कार्रवाई की, अफीम जब्त कर उन्हें जेल में डाल दिया गया. अफीम के व्यापार को ब्रिटिश सरकार ने अवैध घोषित कर दिया और स्मगलर किसानों-व्यापारियों को जेल में डालना शुरू कर दिया. जबकि वो खुद चाय की खातिर चीन में अफीम के स्मगलिंग में जुटा रहा.
इतिहासकारों का मानना है कि 1836 के आसपास, हर साल 30 हजार अफीम की पेटियां चीन अवैध रूप से जाने लगीं, भारत के पूर्वी इलाके में भारी मात्रा में अफीम हो रही थी, और चीन के कैंटोन शहर की तटीय स्थिति के कारण यहां अंग्रेजों के लिए तस्करी आसान हो गई.
चीन में अफीम की बढ़ती तस्करी को लेकर 1839 में चीन के शासक ने अंग्रेजों और अन्य विदेशी व्यापारियों के खिलाफ कार्रवाई की. अफीम के 1600 एजेंटों को गिरफ्तार कर लिया गया और अंग्रेजों की कई हजार अफीम की पेटियां जब्त कर ली गईं. जब अंग्रेजों की यह पूरी पॉलिसी फेल हो गई तो अपने देश की जरूरत को पूरा करने के लिए इंग्लैंड ने चीन के साथ प्रथम अफीम युद्ध लड़ा.
अगस्त 1842 में एचएमएस कॉर्नवालिस पर नानकिंग के पास चीनियों से अंग्रेज़ों का समझौता हुआ जिसे दुनिया ‘अनइक्वल ट्रीटी’ या ‘गैरबराबरी की संधि’ के नाम से जानती है.
चीन को पांच बंदरगाह विदेश व्यापार के लिए खोलना पड़ा और अफ़ीम के कारोबार से हुए नुकसान और युद्ध के हर्जाने के तौर पर उसने ब्रिटेन को दो करोड़ 10 लाख सिल्वर डॉलर अदा किए.
ब्रिटेन को इस संधि से हॉन्गकॉन्ग पर कब्जा मिला जिसका इस्तेमाल चीन में अफ़ीम का कारोबार बढ़ाने के लिए किया जाना था.
हालांकि, इस संधि का भविष्य कितना साफ था, इसपर कईयों को संदेह था. चीन हार और संधि के बाद खुद को अपमानित महसूस कर रहा था. इस स्थिति को भांप रहे ब्रिटिश राजनेता और व्यापारी इस बात से परेशान थे कि अगर चीनी शासकों ने अफीम की खेती अपने देश में करने की इजाजत दे दी तो पीस एकोर्ड नाकाम हो जाएगा. इसी डर से लंदन में एक विचार जन्म लेने लगा. ये विचार था, चाय का भविष्य सुरक्षित करने का…
अगर चीन अफीम को वैधता दे देता तो ये इकोनॉमिक ट्राएंगल में सुराग पैदा कर सकता था. इंग्लैंड के पास चाय के बदले देने के लिए धन नहीं होता , न ही भारत में युद्धों के लिए वह पैसा जुटा पाता, न ही वो अपने घर, इंग्लैंड में सार्वजनिक कार्य कर सकता था. इसका अर्थ ये था, इंग्लैंड का भविष्य पूरी तरह से चाय के भविष्य पर टिका हुआ था.
अंग्रेज ये भी समझ चुके थे कि भारत का हिमालयी क्षेत्र, चीन जैसी चाय उगाने के लिए मुफीद हो सकता है. हिमालयी क्षेत्र ऊंचे थे, अच्छी मिट्टी वाले थे और बादलों से ढके रहते थे. लेकिन भारत में चाय लाने और उसे पैदा करने के लिए अंग्रेजों को बेहतरीन गुणवत्ता वाले चाय के पौधों की जरूरत थी, हजारों बीजों की जरूरत थी, और चीन की सदियों पुरानी पद्दति को समझने वाले जानकार की जरूरत थी.
इस काम के लिए अंग्रेजों के चाहिए था एक प्लांट हंटर, बागवानी के जानकार, एक चोर और एक जासूस… और अंग्रेजों को ये सब जिस शख्स में मिला, उसका नाम था…. रॉबर्ट फॉर्च्यून
भारत में जब जब चाय का जिक्र आएगा, ध्यान जाएगा इतिहास की सबसे बड़ी इंटिलेक्चुअल प्रॉपर्टी की चोरी पर भी और साथ में इसी चाय से जुड़ा है, दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका की आजादी का किस्सा भी
बहरहाल, हम आज जिस यात्रा की बात करने जा रहे हैं, वो चाय की यात्रा है, ये यात्रा चीन से होते हुए भारत पहुंची और फिर दुनिया ने जाना कि शरीर में स्फूर्ति देने वाला ये एक पौधा ही है और वह दिखता भी आम पौधों की तरह ही है, काली और हरी चाय दो अलग किस्में नहीं बल्कि एक ही किस्म है…
बात भारत की आजादी की पहली लड़ाई, 1857 से कोई एक दशक पहल की है. सितंबर के सुहाने मौसम में, अंग्रेज अफसर ऐसे मिशन को अंजाम देने की फिराक में थे, जिससे वो चाय के बाजार में चीन की सरपरस्ती को नेस्तनाबूद कर सकते थे. मसालों के कारोबार से भारत में पैर जमाने वाले अंग्रेजों के लिए ये चाय एक ऐसी बला बन चुका था जो खर्चे बढ़ा रही थी और इसका स्वाद हर जुबां पर चढ़ा था. चीन से आयात होकर यूरोप तक पहुंचने में चाय सोने जितनी महंगी हो जाती थी और इसी खर्चीले व्यापार को कम करने की नीयत से अंग्रेजों ने ये योजना बनाई थी.
एक उदाहरण के रूप में आप इसे समझ सकते हैं, 1635 में इंग्लैंड में एक पाउंड चाय पत्ती छह पाउंड से दस पाउंड की कीमत में यानी 570 रुपये से 950 रुपये के बीच बिकती थी जो आज के हिसाब से 57000 रुपये और 95000 रुपये बैठती है.
1848 में, चीनी जासूस, रॉबर्ट फॉर्च्युन एक चाय व्यापारी बनकर चीन में प्रवेश करता है. फॉर्च्युन के साथ वैंग नाम का एक नौकर होता है, जिसे वो कुली कहकर संबोधित करता है. चीन में इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए फॉर्च्युन अपने सिर के बाल हटवा देता है. मैंडेरियन सीखता है, लंबी चोटी रखता है, चीनी लिबास पहनता है. इस काम में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था. अगर फ़ॉर्च्यून कामयाब हो जाता तो चाय पर चीन का हज़ारों साल का आधिपत्य समाप्त हो जाता और ईस्ट इंडिया कंपनी हिंदुस्तान में चाय उगाकर सारी दुनिया में बेचना शुरू कर देती. लेकिन दूसरी ओर अगर वह पकड़ा जाता तो उसकी सिर्फ़ एक ही सज़ा थी, मौत…
ये wuyi shan की पहाड़ी में बनी एक फैक्ट्री की तरफ बढ़ते हैं. इसके बाद होंगजोऊ होते हुए शंघाई और फिर झेजियांग और अनहुई के चाय बागानों तक भी पहुंचते हैं. यह तीन महीनों का बेहद कठोर अभियान था. चीन के दुर्गम इलाकों में दो हजार साल पुरानी चाय बनाने की प्रक्रिया की खोजबीन करने के बाद 1849 में फॉर्च्यून शंघाई पहुंचते हैं. यहां आकर वह लंदन में अंग्रेज अफसरों से संपर्क साधता है. खत में वह लिखता है कि मेरे पास बीच और नए पौधों की बड़ी संख्या है और मुझे भरोसा है कि मैं सुरक्षित रूप से उन्हें भारत पहुंचा दूंगा. यहां वह यह भी बताता है कि चीनी चाय को हरा कर अंग्रेजों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं जबकि हकीकत में हरी और काली चाय एक ही है.
फॉर्च्युन लगभग तेरह हजार पौधों के सैंपल्स और दस हजार बीजों को भारत तक पहुंचाने में कामयाब रहता है. लेकिन यहां एक चूक हो गई. जो पौधे चीन से आए थे वह वहां पहाड़ के ठंडे मौसम के आदी थे. असम के गर्म इलाक़े उन्हें रास नहीं आए और वह धीरे-धीरे सूखने लगे. इससे पहले ये तमाम कोशिशें बर्बाद हो जातीं ब्रिटिशर्स की दूसरी कोशिश कामयाब होती दिखी. ये वो कोशिश थी, जो जासूसी के समानांतर जारी थी.
1823 में, स्कॉटिश खोजकर्ता रॉबर्ट ब्रूस ने एक देसी चाय के पौधे की खोज की थी, जो ऊपरी ब्रह्मपुत्र घाटी में उगाई जा रही थी स्थानीय सिंघफो जनजाति इस काम में लगी थी. मणिराम ने इसकी जानकारी रॉबर्ट ब्रूस और उनके भाई को दी. इसके बाद मणिराम ऐसे पहले भारतीय बने जिन्होंने चाय की निजी खेती की. चाय पत्ती की जानकारी साझा करने से पहले ही ब्रूस की मौत हो गई. 1834 में क्रिस्मस की शाम, उनके भाई चार्ल्स एल्केजेंडर ब्रूस ने चाय के सैंपल्स को कलकत्ता के बॉटनिकल गार्डन डिस्पैच किया. शुरुआत में, अंग्रेजों ने असम चाय को चीन की चाय से कमतर आंका लेकिन बाद में जब चीन से आई चाय यहां के मौसम को नहीं झेल सकी तब उन्होंने असम की चाय के साथ ही कारोबार करने का फैसला किया.
असम कंपनी- पहली जॉइंट टी स्टॉक कंपनी का गठन लंदन में हुआ. इसके बाद जॉर्ज विलियम्सन और जोरहाट टी कंपनी की स्थापना हुई. वहीं, फॉर्च्यून ने बाद में अपनी इस यात्रा को किताब Three Years’ Wanderings in the Northern Provinces of China के रूप में दुनिया के सामने पेश किया.
दार्जिलिंग चाय का का इतिहास
1835 में दार्जिलिंग ईस्ट इंडिया कंपनी को ट्रांसफर किया गया. 1941 में, चीनी चाय की प्रजाति इस क्षेत्र के लिए एकदम उपयुक्त मानी गई. डॉक्टर ए कैंपेल दार्जिलिंग में चीन की चायपत्ती उगाने वाले पहले शख्स थे, ये बीज वो कुमाऊं क्षेत्र से लेकर आए थे.
दार्जिलिंग में चाय की कमर्शियल खेती 1850 के आसपास शुरू हुई और 1874 तक करीब 113 पौधे लगाए जा चुके थे. ये 18,888 एकड़ की जमीन को कवर कर रहे थे और इनपर 3.9 मिलियन पाउंड के कारोबार का दारोमदार था.
देश के अन्य हिस्सों में कैसे पहुंची चाय
असम और दार्जिलिंग में चाय की खेती के सकारात्मक नतीजों ने निचले हिमालयी क्षेत्रों और देश के अन्य हिस्सों तक भी ऐसे प्रयासों को तेजी दी- जिसमें देहरादून, गढ़वाल, कांगड़ा वैली, कुल्लू, दक्षिण में नीलगिरी थे.
उत्तर भारत
1863, 78 पौधे कुमाऊं, देहरादून, गढ़वाल, कांगड़ा और कुल्लू घाटी में लगाए गए.
दक्षिण भारत
डॉ. क्रिस्टीन, पहले शख्स थे जिन्होंने नीलगिरी में 1832 में चाय के पौधे लगाए
भारत बन गया निर्यातक देश
1853 तक, भारत चाय के निर्यात यानी एक्सपोर्ट में 183.4 टन की संख्या को छू चुका था, जो 1870 तक 6700 और 1885 तक 35,274 टन तक जा पहुंची थी.
1947 के बाद चाय की खेती
आजादी के बाद देश में चाय की खेती बेहतरीन ढंग से आगे बढ़ती रही. मारवाड़ी कम्युनिटी ने इसमें अहम रोल निभाया. ढेरों मारवाड़ी लोगों ने ब्रिटिश मालिकों से चाय बागान खरीद लिए. 1947 से अब देश में चाय का उत्पादन ढाई सौ गुना से भी ज्यादा बढ़ चुका है. वहीं चाय की खेती के लिए इस्तेमाल होने वाली जमीन 40 फीसदी बढ़ी है.
चाय से कैसे मिली अमेरिका को आजादी
1773 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी अमेरिका में चाय का व्यापार करती थी तो वह टैक्स अदा नहीं करती थी. आख़िर तंग आकर एक दिन कुछ अमेरिकियों ने बोस्टन के बंदरगाह पर जहाज़ पर चढ़कर कंपनी के जहाज़ से चाय की पेटियां समुद्र में फेंक दीं. ब्रिटेन की सरकार ने इसका जवाब मज़बूती से दिया जिसके बाद अमेरिकी आबादी में वह बेचैनी फैली की तीन साल बाद अमेरिका को आज़ादी मिली.
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