वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास ( Gyanvapi Mosque History ) क्या है? इस मस्जिद से जुड़ी जानकारी ( Gyanvapi Mosque Information ) क्या है? जब हम सभी मस्जिदों के इस्लामिक नाम सुनते हैं, इस मस्जिद का नाम ऐसा क्यों है जैसे कि कोई हिंदू नाम? ऐसे कई सवाल हैं जो वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) को लेकर पूछे जाते हैं. आइए आज जानते हैं, वाराणसी की इसी ज्ञानवापी मस्जिद का पूरा लेखा जोखा, एक नजर में…
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ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque ), उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित है. ऐसा बताया जाता है कि यह मस्जिद एक पुराने शिव मंदिर को खंडित करके बनाया गया है. मंदिर को 1669 में औरंगजेब के आदेश पर खंडित किया गया था..
ऐसा कहा जाता है कि इस साइट पर मूल रूप से एक विश्वेश्वर मंदिर था. 16वीं सदी के अंत में इसकी स्थापना टोडरमल ने नारायण भट्ट के साथ मिलकर की थी. नारायण भट्ट, बनारस के सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण परिवार के मुखिया थे. जहांगीर के एक करीबी सहयोगी वीर सिंह देव बुंदेला ने 17वीं शताब्दी की शुरुआत में कुछ हद तक मंदिर का नवीनीकरण किया. हालांकि, मंदिर और इसके स्थल के इतिहास को लेकर अभी भी जानकारी का अभाव है.
James Prinsep ने ज्ञानवापी मस्जिद को विश्वेश्वर मंदिर के तौर पर स्केच किया था.
ज्ञानवासी मस्जिद का नाम उस कुएं के नाम पर रखा गया है, जो आज भी परिसर में मौजूद है. इस कुएं को ज्ञानवापी कुएं के नाम से जाना जाता है. किंवदंतियों का मानना है कि शिव ने इसे स्वयं शिवलिंग को ठंडा करने के लिए खोदा था. लगभग 1669 के आसपास, औरंगजेब ने मंदिर को गिराने का आदेश दिया था, तब इसके स्थान पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण शुरू किया गया था.
जानकारी, औरंगजेब के फैसले को धार्मिक दृष्टि से न जोड़कर राजनीतिक दृष्टि से अधिक जोड़ते हैं. The Oxford World History of Empire के नोट में इसे औरंगजेब की कट्टर सोच बताया गया है, लेकिन साथ में स्थानीय राजनीति का भी इसमें बड़ी भूमिका को रेखांकित किया गया है. माधुरी देसाई भी इसे राजनीतिक अधिक मानती हैं.
एक पक्ष ये भी कहता है कि मान सिंह के परपोते जय सिंह प्रथम ने शिवाजी को आगरा के किले से निकालने में मदद की थी. साथ ही, बनारस के जमींदार अक्सर ही औरंगजेब के प्रति विद्रोह करते थे, वहीं स्थानीय ब्राह्मण भी इस्लामिक शिक्षा को नापसंद करते थे. ऐसे में मंदिर को ध्वस्त करके औरंगजेब का मकसद जमींदार और हिंदू धर्म से जुड़े बड़े नेताओं को संदेश देने का भी था.
हालांकि, जादुनाथ सरकार ने विध्वंस और इसी तरह के दूसरे आदेशों को औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता से जोड़ा है.
ऐसा कहा जाता है कि ब्राह्मण पुजारियों को परिसर में निवास करने की अनुमति थी. 1698 में, आमेर के राजा बिशन सिंह ने शहर का सर्वे कराया और मंदिर के विध्वंस के संबंध में कई दावों और विवादों के बारे में जानकारी जुटाई.
बिशन सिंह के दरबार ने आसपास के काफी क्षेत्र खरीद डाले. इसका मकसद मंदिर का पुनर्निर्माण करना था (मस्जिद को तोड़े बिना), लेकिन कोशिश नाकाम रही. लगभग 1700 के आसपास, सिंह के उत्तराधिकारी सवाई जय सिंह द्वितीय की पहल पर एक आदि-विश्वेश्वर मंदिर का निर्माण किया गया, जो मस्जिद से लगभग 150 गज आगे था.
18वीं शताब्दी की शुरुआत तक, यह क्षेत्र लखनऊ के नवाबों के नियंत्रण में आ गया. लेकिन यही वह दौर था जब भारत सत्ता संघर्ष के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा था. मुगल और मराठाओं में वर्चस्व की लड़ाई जारी थी, तो अंग्रेज भी इस मौके को भुनाने की तैयारी में थे. मराठा, औरंगजेब के हाथों धार्मिक अन्याय पर बेहद मुखर थे.
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नाना फडणवीस ने मस्जिद को ध्वस्त करने और विश्वेश्वर मंदिर के पुनर्निर्माण का प्रस्ताव रखा. 1742 में, मल्हार राव होल्कर ने भी इसी तरह की कार्रवाई का प्रस्ताव रखा. हालांकि, लगातार प्रयासों के बावजूद, कई हस्तक्षेपों के कारण ये योजनाएं अमल में नहीं लाई जा सकीं.
लखनऊ के नवाब, मराठाओं के प्रतिद्वंदी थे. स्थानीय ब्राह्मणों में मुगल दरबार का डर था और ईस्ट इंडिया कंपनी को सांप्रदायिक तनाव फैलने का डर था.
18वीं सदी के उत्तरार्ध में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने बनारस पर सीधा नियंत्रण मिल चुका था. तब मल्हार राव की उत्तराधिकारी (और बहू) अहिल्याबाई होल्कर ने मस्जिद के दक्षिण में मौजूदा काशी विश्वनाथ मंदिर ( Kashi Vishwanath Mandir ) का निर्माण किया.
1828 में, मराठा शासक दौलत राव सिंधिया की विधवा बैजा बाई ने ज्ञानवापी कुएं ( Gyanvapi Kuan ) के ऊपर छत को सपोर्ट करने के लिए खंभों की श्रृंखला बनाई.. एम. ए. शेरिंग ने 1868 में लिखा है कि हिंदुओं ने अनिच्छा से मुसलमानों को मस्जिद बनाए रखने की अनुमति दी थी.
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मुसलमानों ने मस्जिद के सामने मंच के बीच में एक प्रवेश द्वार बनाया था, लेकिन हिंदुओं द्वारा इसका उपयोग करने की अनुमति नहीं थी. हिंदुओं ने प्रवेश द्वार पर लगे एक पीपल के पेड़ की भी पूजा की, और मुसलमानों को “इसमें से एक भी पत्ता तोड़ने” की अनुमति नहीं दी। हिंदुओं के लिए एक “आंखों का दर्द”.
1809: दंगे का भयानक मंज़र
ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Masjid ) और काशी विश्वनाथ मंदिर ( Kashi Vishwanath Mandir ) के बीच की जगह पर हिंदू समुदाय ने एक मंदिर के निर्माण की कोशिश की और इससे तनाव बढ़ गया.
जल्द ही, होली और मुहर्रम का त्योहार एक ही दिन पड़ गया. इस दौरान हुआ टकराव सांप्रदायिक दंगे में बदल गया. एक पशु को मारने और उसके रक्त को फैलाकर खून कुएं के पवित्र पानी में फैला दिया.
ज्ञानवापी में आग लगा दी गई और उसे गिराने की कोशिश की गई. ब्रिटिश प्रशासन दंगे को संभालता उससे पहले ही दोनों पक्षों ने हथियार उठा लिए. कई मौतें हुई और संपत्ति का नुकसान भी हुआ.
(नोट: यह लेख विकीपीडिया और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया है)
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