इस ब्लॉग में आप बटेश्वर के मंदिर ( Bateshwar Mandir, Morena ) की यात्रा का मेरा ब्लॉग पढ़ेंगे. बटेश्वर के मंदिर ( Bateshwar Mandir, Morena ) कैसे पहुंचें, वहां जाएं तो कहां ठहरें और खान-पान की जानकारी के लिए आपको एक दूसरे ब्लॉग से मदद मिलेगी. इसे आप नीचे लिंक में पढ़ पाएंगे. बटेश्वर मंदिरों ( Bateshwar Mandir, Morena ) को स्थानीय लोग बटेसर, बटेसरा या बटेश्वरा भी कहते हैं. यह मंदिर मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में हैं. इन्हें गुर्जर राजाओं द्वारा बनाया गया था. ग्वालियर से इनकी दूसरी लगभग 35 किलोमीटर और मुरैना से लगभग 30 किलोमीटर है.
सच कहूं तो मुरैना की यात्रा से पहले मैंने इन मंदिरों के बारे में न सुना था, और न ही कहीं पढ़ा था. हां, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के पैतृक गांव बटेश्वर के बारे में ज़रूर पढ़ा था. लेकिन इस मुरैना वाले बटेश्वर ( Bateshwar Mandir, Morena ) के बारे में बिल्कुल नहीं. यहां अनिल जी ने सबसे पहले इसकी जानकारी दी. जब उन्होंने बताया तब मैंने बटेश्वर के मंदिरों ( Bateshwar Mandir, Morena ) को भी अपनी यात्रा सूची में डाल दिया.
64 योगिनी मंदिर की यात्रा के बाद अब बारी थी बटेश्वर जाने की. मुरैना में यात्रा का दूसरा दिन. बटेश्वर मंदिरों ( Bateshwar Mandir, Morena ) का समूह जिस जगह है वह गुर्जर आबादी वाला क्षेत्र है. इस इलाके में कभी गुर्जर डकैतों की दहशत गूंजती थी. हालांकि, अब ऐसा नहीं है. फिर भी स्थानीय लोगों की कथित दबंगई से ऑटो वाले या टैक्सी वाले थोड़ा बहुत आशंकित रहते हैं.
बटेश्वर जाते वक्त मैं जहां तहां खदाने देखी. पत्थरों को खनन पूरे जोर शोर से किया जा रहा था. अब पता नहीं ये वैध थी या अवैध. लेकिन ये ज़रूर सुना मैंने कि मुरैना में सैंकड़ों ऐतिहासिक मंदिर अवैध खनन की भेंट चढ़ चुके हैं.
बटेश्वर के मंदिर ( Bateshwar Mandir, Morena ) पहुंचा तो यहां कोई नहीं दिखा. दो लड़के हमारी स्कूटी के साथ साथ थे. मैंने उनसे बातचीत की. पता चला कि वे मुरैना से ही हैं लेकिन दिल्ली में पढ़ाई करते हैं. थोड़ी बहुत बातचीत ही हो पाई. बेहद शांत माहौल में मोरों की आवाज़ सुनाई दे रही थी. हल्की हल्की फ़ुहारें गिर रही थीं. इन सबके बीच मैं अकेला पूरे परिसर में घूम रहा था.
बटेश्वर मंदिर ( Bateshwar Mandir, Morena ) की यात्रा का संपूर्ण वीडियो आप नीचे वीडियो में ज़रूर देखिए. इस मंदिर में लगभग मैं हर कोने में गया और वह भी अकेले. मैं सोच रहा था कि ये तो एक मंदिर है. इसके अलावा और भी न जाने कितने महत्वपूर्ण मंदिर रहे होंगे. खैर, ये परियोजना असल में शुरू ब्रिटिश काल में हुई थी. तो अंग्रेज़ी शासन को भी शुक्रिया कहना बनता है.
बटेश्वर के मंदिरों ( Bateshwar Mandir, Morena ) पर एक जगह मुझे आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के कर्मचारी मिले. वह सो रहे थे. सुरक्षा की दृष्टि से वह यहीं रहते हैं. मैंने उनसे बहुत गुज़ारिश की कि वह कैमरे पर आकर कुछ बताएं. उन्होंने सरकारी नियम की मजबूरी बताई और इनकार कर दिया. हां, बातें उन्होंने खूब की. उनसे ली गई जानकारी को मैंने वीडियो में बताया है.
उन्होंने बताया कि मैं खुद गुर्जर जाति से हूं लेकिन स्थानीय गुर्जरों में अभी भी ऐसे कई लोग हैं जिन्हें इन मंदिरों के महत्व का पता नहीं है. वह भी तब जब उन्हीं की बिरादरी के राजा ने इसे बनाया है. वह आते हैं, उछल कूद करते हैं. कोई मंदिर के ऊपर चढ़कर फ़ोटो खिंचवाता है, कोई कूदता है. ये सब बताते हुए वह गुस्सा गए थे. भाषा वही थी, पान सिंह तोमर फिल्म में जो सुनी थी आपने, मुरैना वाली.
मैंने उनकी भावनाओं को समझा और काफ़ी देर तक बात भी की. मैंने उनसे केके मोहम्मद का ज़िक्र किया. केके मोहम्मद ने ही डकैत निर्भय गुर्जर को यहां मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए मनाया था. इन कर्मचारी ने बताया कि केके मोहम्मद रिटायर हो चुके हैं और केरल में अपने घर पर रहते हैं. वे हर साल यहां आते हैं. कोरोना की वजह से दो साल से नहीं आए हैं. जब भी आते हैं, शिव मंदिर के दर्शन ज़रूर करते हैं.
केके मोहम्मद की यात्रा के दौरान कर्मचारी उनके लिए यहीं पर भोजन बनाते हैं. और वह साथ में भोजन करते हैं. वह शख्स भावुक हो गए. कमाल की बात है न! एक सम्मान जो केके मोहम्मद के लिए उनके साथ काम कर चुके कर्मचारियों के दिल में आज भी है. इसने मुझे भी भावविभोर कर दिया.
बेहतरीन लम्हों की यादें संजोए मैं निकल चला था बटेश्वर मंदिरों के समूह से. ऑटो वाले भाई भी आ चुके थे. बार बार कह रहे थे कि हम लेट हो रहे हैं. हां, हम लेट हो भी रहे थे. लेकिन बटेश्वर मंदिर से कुछ ही दूरी पर एक विष्णु मंदिर भी है. ये मंदिर भी पुनः निर्मित किया गया है. मैं कुछ मिनट यहां भी गया. यहां पहुंचने के लिए आपको सीढ़ियों का इस्तेमाल करना होता है.
विष्णु मंदिर, बटेश्वर मंदिर ( Bateshwar Mandir, Morena ) शानदार लोकेशन है दोस्तों. आपको फुर्सत मिले तो ज़रूर जाइए. जब मैं बटेश्वर मंदिर से निकला तो एक स्थानीय शख्स ने ऑटो रुकवाया. उसने ऑटो वाले को स्थानीय भाषा में धमका कर कहा कि इस कड़ाहे को ऑटो में रखकर ले चलो. ऑटो वाले भाई ने जब उन दो लोगों और कड़ाहे को एक साथ अकोमोडेट करने में असमर्थता जाहिर की तो उनकी आवाज़ में और भी तल्खी आ गई.
इसपर, ऑटो वाले भाई ने मेरी तरफ देखकर कहा कि ये पत्रकार हैं, तब उस शख्स की आवाज़ में थोड़ी विनम्रता का भाव आया. दोस्तों, दिल्ली में तो नहीं लेकिन दिल्ली से बाहर जाकर पता चलता है कि पत्रकार होना क्या होता है. आज भले पत्रकारिता का स्वरूप बदल चुका हो लेकिन आज भी गांव-देहात में पत्रकार होना, किसी उम्मीद का ज़िंदा होना होता है. मैंने इसे यहां मुरैना की यात्रा पर कई मौकों पर महसूस भी किया.
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