Who is Alha Udal : हिंदुस्तान का इतिहास अनेकों वीरों के शौर्य और साहस की गाथाओं से भरा पड़ा है. महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, पृथ्वीराज चौहान और ना जाने कितने ऐसे नाम हैं, जिन्होंने इतिहास के पन्नों पर अपनी वीरता की छाप छोड़ दी है.
इन सबके बारे में देश का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन आज एक ऐसे दो वीर योद्धाओं की अद्भुत कहानी आपको बताने जा रहे हैं जिनकी वीरता का कोई प्रमाण नहीं रहा लेकिन इतिहास के पन्नों में उन्हें वो स्थान हासिल ना हो सका जो दूसरों को हुआ. बात कर रहे हैं बुंदेलखंड की मिट्टी में पैदा हुए दो भाइयों आल्हा और ऊदल की.
उत्तर प्रदेश में महोबा के महान योद्धा आल्हा और ऊदल के जीवन के बारे में कहानियां पढ़ें. जानिए आल्हा उदल के पिता और माता के बारे में. आल्हा- ऊदल यूपी के बुंदेलखड क्षेत्र के महान योद्धा थे.
आल्हा और ऊदल चंदेल राजा परमदी देव या परमल के प्रसिद्ध सेनापति थे. ऊदल का पूरा नाम उदय सिंह था और वह आल्हा के छोटे भाई थे. आल्हा और ऊदल का पालन-पोषण राजा परमल ने स्वयं उनके पिता के रूप में किया था.
आल्हा और ऊदल बानाफर राजपूत वंश के थे. आल्हा की माता का नाम देवकी था और वह अहीर थी. आल्हा और ऊदल की बहादुरी की कहानियां भारत में लोककथाओं का हिस्सा हैं, विशेष रूप से मध्य भारत में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार आदि शामिल हैं. आल्हा आल्हा-खंड (जिसे परमल रासो के नाम से भी जाना जाता है) के नायक में से एक है. आल्हा खंड बहुत प्रसिद्ध है और बुंदेलखंड में इसका पाठ किया जाता है. आल्हा-खण्ड के अनुसार आल्हा और ऊदल महान योद्धा थे.
आल्हा और ऊदल की वीरता की लोक गाथा इतनी फेमस है कि जब कोई किसी को बहादुरी से लड़ते हुए देखता है तो कहते हैं कि हम आल्हा-ऊदल की तरह लड़ रहे हैं. आल्हा-ऊदल की वीरता की कहानियां भारत के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय हैं. ऐसी ही एक कथा के अनुसार, आल्हा अपराजेय था, क्योंकि उसे देवी शारदा ने अमर कर दिया था.
किंवदंतियों का कहना है कि, वह इतने निडर थे कि उन्होंने अपना सिर तलवार से काटकर देवी मां को उपहार में दे दिया. देवी ने उनकी वीरता और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अमर कर दिया.
आल्हा के दो मामा मलखान और सुलखान थे. वे अपनी जबरदस्त ताकत के लिए भी जाने जाते थे.
एक अन्य कथा के अनुसार, आल्हा की तलवार, जो महोबा के शासक परमल और उसके चाचा द्वारा उन्हें दी गई थी, स्वर्ग से थी और कोई भी हथियार उस तलवार के प्रकोप से मेल नहीं खा सकता था. यदि आप उत्तर प्रदेश के महोबा जाते हैं, तो आप आल्हा और ऊदल चौक देख सकते हैं.
आल्हा के लिए कहा जाता है कि इन्होंने तलवार की नोंक पर शादी की थी. आल्हा के विवाह की कहानी भी वीरता का बखान करती है. पुराने समय में राजा महाराजाओं की शादियों का ढंग भी अनूठा होता था.
जिन राजाओं के घर में पुत्री होती थी वह आसपास के राजकुमारों को युद्ध के लिए ललकारता था. जो युद्ध में राजा को पराजित कर देता उसी के साथ राजकुमारी का विवाह तय कर दिया जाता था.
नैनागढ़ के राजा के एक पुत्री थी उसका नाम था सुमना. सुमना बहुत सुन्दर थी साथ ही वह आल्हा की वीरता से परिचित थी और आल्हा भी उसी से विवाह करना चाहते थे लेकिन नैनागढ़ के राजा यह नहीं चाहते थे. जब आल्हा को इस बात का पता चला तो उन्होंने नैनागढ़ पर आक्रमण कर दिया.
जब सुमना के पिता को यह बात पता चली की उनकी पुत्री भी आल्हा से शादी करना चाहती है तो उन्होंने युद्ध को विराम दिया और संधि कर ली साथ ही सुमना का विवाह भी आल्हा के साथ कर दिया.
जैसा कि आपको ऊपर बताया की राजा परमाल की पत्नी का भाई माहिल आल्हा से जलता था. साथ ही वह चाहता था की राजा इनको सेनापति के पद से हटा दे लेकिन यह असंभव था. इसकी मुख्य वजह परमाल का आल्हा से प्रेम के साथ साथ इनकी वफ़ादारी और वीरता भी थी.
माहिल ने एक चाल चली. माहिल जानता था की आल्हा को उसके घोड़े से बहुत प्रेम हैं. उसने राजा परमाल को बताया की आल्हा वफादार नहीं हैं वह राज्य आपसे हड़पना चाहता हैं. अगर आपको यकीं न हो तो उसका घोड़ा मांगकर देखो.
पहले तो राजा परमाल को विश्वास नहीं हुआ लेकिन उन्होंने आल्हा को बुलाया और कहा कि उसका प्रिय घोड़ा उनको सुपुर्द कर दें.
आल्हा ने कहा कि घोड़ा और शस्त्र किसी को नहीं देने चाहिए. इतना सुनकर राजा को विस्वास हो गया की यह वास्तव में सही आदमी नहीं हैं. उन्होंने आल्हा को राज्य छोड़ने का आदेश दिया जिसे आल्हा ने बड़ी ही विनम्रता के साथ मान लियाऔर महोबा छोड़कर कन्नौज चले गए.
आल्हा और ऊदल दोनों का अंतिम युद्ध दिल्ली के शासक रहे पृथ्वीराज चौहान के साथ हुआ था. इसी युद्ध के लिए आल्हा ऊदल को कन्नौज से बुलाया गया था. 11वी सदी में बुंदेलखंड विजय का सपना लेकर पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल शासन पर हमला किया था. उस वक्त चंदेलों की राजधानी महोबा थी. बैरागढ़ में हुई भीषण लड़ाई में आल्हा के भाई ऊदल को वीरगति प्राप्त हुई थी.
इसके बाद आल्हा भाई की मौत की खबर सुनकर आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर कहर बनकर टूटे. करीब एक घंटे के भीषण युद्ध के बाद पृथ्वीराज चौहान और आल्हा रण में एक दूसरे के सामने आ गए. आल्हा ने भीषण लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया. हालांकि कहा जाता है कि अपने गुरु गोरखनाथ के आदेश पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दे दिया था.
इसके बाद आल्हा ने संन्यास ले लिया और मां शारदा की भक्ति में लीन हो गए. इस युद्ध को दोनों ने चंद्रावती की रक्षा के लिए लड़ा था जो राजा परमल की बेटी थीं. पृथ्वीराज चौहान चंद्रावती को अपनी बहू बनाना चाहते थे.
बहन की रक्षा के लिए कन्नौज से दो भाई लौट आए थे और बहन का डोला एक दिन के लिए रुक गया था. इस वजह से यहां राखी एक दिन बाद मनाई जाती है.
आज भी बैरागढ़ में मां शारदा के मंदिर में मान्यता है कि हर रात दोनों भाई आल्हा और ऊदल मां की आराधना करते हैं. कहा जाता है कि रात को सफाई के बाद मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं लेकिन सुबह जब कपाट खोले जाते हैं तो यहां पूजा करने के सबूत मिलते हैं.
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