मुक्तेश्वर (Mukteshwar) और मैं… नैनीताल (Nainital) की इस छोटी सी जगह के बारे में मैंने पहले काफी सुना हुआ था, खासतौर से अपने दोस्त अमित से, जिनका बचपन मुक्तेश्वर (Mukteshwar) में ही बीता था. उनके पिता आईवीआरआई में जॉब करते थे. उन्होंने मुझे मुक्तेश्वर (Mukteshwar) में बिताए अपने बचपन से जुड़ी कई बातों को साझा किया था. हालांकि इसपर भी मेरे मन में कभी इस जगह पर जाने की इच्छा नहीं जगी थी. लेकिन जुलाई 2019 के आखिर में संयोगवश में इस जगह पर चला ही गया.
दरअसल, विपिन ने अपने दोस्तों संग मुक्तेश्वर (Mukteshwar) की यात्रा का प्लान बनाया था. मैं इस ट्रिप में कहीं नहीं था लेकिन अचानक से विपिन की मंडली में कुछ लोग कम हो गए. विपिन ने मुझसे मुक्तेश्वर (Mukteshwar) की यात्रा में जुड़ने के लिए कहा तो मैंने नौकरी का हवाला देकर इनकार कर दिया. लेकिन कहते हैं न कि सब पहले से फिक्स है, इसलिए शायद मेरा इस ट्रिप में जाना भी फिक्स था.
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मैंने जुगाड़ करके एक छुट्टी निकाल ली. शनिवार-रविवार वीकली ऑफ था, सो शुक्रवार को एक अतिरिक्त छुट्टी से बात बन गई. इस ट्रिप में मेरे साथ थे, विपिन, वासु, संजय, रमोला और मिंटू भाई. रमोला और मिंटू भाई से मैं पहले कभी नहीं मिला था. गाड़ी की व्यवस्था संभाली वासु ने और ठहरने का बंदोबस्त कराया विपिन ने.
1 अगस्त को रात 11 बजे हम सभी अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन पर मिले. मैंने अक्षरधाम जाने के लिए साहिबाबाद में अपने घर से काले खां बस स्टेशन तक जाने वाली सीधी बस ले ली थी इसलिए मैं वहां सबसे पहले पहुंच गया था. मुझसे 5 मिनट के अंतराल पर संजय वहां पहुंचा. और आधे घंटे के बाद पूरा ग्रुप.
अक्षरधाम पर विपिन ने मेरा परिचय रमोला और मिंटू भाई से कराया. दोनों ही बंदे पहाड़ी हैं. हमारी इनोवा गाड़ी में ड्राइवर ने मेरा और संजय का सामान सेट किया और फिर हम निकल पड़े पहाड़ों की तरफ.
करीब एक घंटे के सफर के बाद हम हापुड़ रुके. जहां शिवा ढाबे पर हमने खाना खाया. हालांकि मैं घर से खाकर निकला था और मैंने बाकी दोस्तों के लिए टिफिन भी लिया था लेकिन कढ़ाई पनीर और घी में चुपड़ी रोटियां देख मुझसे रुका न गया और मैंने भी जमकर आधी रात वाला डिनर कर लिया.
इस ढाबे पर हमने अपने व्लॉग का इंट्रो शूट किया. विपिन ने इसपर मोर्चा संभाला. इस शूट के बाद हम गाड़ी में बैठ लिए. ड्राइविंग सीट पर बलवंत भैया था. बलवंत भैया को मैंने तुरंत ही बोल दिया कि भैया गाड़ी को अब सीधा नैनीताल (Nainital) ही रोकिएगा, बीच में कहीं नहीं. सबने मेरी हां में हां मिलाया और हम सवार हो लिए अपनी 6 सीटर इनोवा में.
मैंने अंदर बैठकर तय कर लिया कि अगर मैं गाड़ी में सोया तभी अगले दिन जाग सकूंगा और व्लॉग शूट भी कर सकूंगा. गाड़ी में मेरी आंखे इसके साथ ही नींद के आगोश में चली गई. इसके बाद मेरी आंख हल्दवानी से थोड़ा पहले ही खुलीं. साढ़े 4 बजे की वह रात वाली सुबह देख मुझे गांवों की याद गई. जब हम भाई बहन गर्मी की छुट्टियों में गांव जाया करते थे तो सुबह सुबह इसी समय ट्रेन से बाहर झांककर नदिया गिनते और पेड़ गिनते थे.
वापस पहाड़ के सफर पर आते हैं. हल्दवानी की इस सुबह को हमने जाया नहीं होने दिया और फुटेज कैमरे में रिकॉर्ड कर ली. हम हल्दवानी शहर से थोड़ा ऊपर बढ़े ही थे कि हम ऐसा लगा जैसे हम पहाड़ों की गोद में पहुंच गए हैं. हम उस हरे भरे शांत सुबह वाले माहौल को मजेदार ढंग से जी रहे थे. हंसते खेलते हम आगे बढ़े जा रहे थे.
थोड़ी ही दूरी पर हमें चाय और स्नैक्स की कुछ शॉप्स दिखाई दीं. इस जगह का नाम दोगांव था. यहीं पर एक वॉशरूम भी था जहां हम फ्रेश हुए. फिर हमने चाय पी और कुछ स्नैक्स भी लिया. हां, यहां हमें बंदरों का झुंड बड़ी संख्या में दिखा. पहले तो हम इन्हें देखकर डर से गए थे. ऐसा इस वजह से क्योंकि मैं और मेरे साथी बंदरों के हमले की खबरें पढ़ते सुनते रहते हैं लेकिन बाद में बंदरों भी जैसे हमारे साथ दोस्ताना हो गए थे. हमें हैरान किया तो उनकी अजीब सी आवाज ने जो हम उस दोगांव नाम की जगह पर पहली बार सुन रहे थे. आप भी ये वीडियो इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं.
दोगांव में हमने फोटो-वीडियो भी खूब शूट किया. इसके बाद हम निकल चले नैनीताल (Nainital) की तरफ. करीब आधे घंटे के सफर के बाद हम नैनीताल (Nainital) पहुंच गए थे. नैनीताल (Nainital) मैंने सुना तो खूब था लेकिन पहली बार ऐसा था जब मैं इस पहाड़ी शहर में आया था. पहाड़ी स्थल पर किसी झील को देखकर ही मैं दंग हो गया. इसके बाद सर्दी भरी सुबह, लोगों का स्वेटर पहनकर मॉर्निंग वॉक, और ऐतिहासिक स्कूल और इमारतें मेरी यात्रा का शानदार आगाज कर रहे थे.
विपिन के एक दोस्त के रिलेटिव का यहां बंगला था. वह हमें रिसीव करने नैनीताल (Nainital) बस अड्डे पर पहले से मौजूद थे. हमारे पहुंचने के बाद वह हमें अपने घर लेकर गए. उनका घर बेहद बड़ा था. बड़े बड़े कमरे, शानदार आर्किटेक्चर और फर्चीनर उसकी खूबसूरती को और बढ़ा रहे थे. अंकल ने हमें बताया कि वह इस घर को होमस्टे पर भी देते हैं. हम उनके घर पर फ्रेश हुए, फिर अंकल ने हमें चाय पिलाई. लगभग 40 मिनट की आपसी बातचीत के बाद हम वहां से निकलने को हुए.
वहां से निकलते हुए मुझे अंकल के घर से 2 घर छोड़कर एक छत पर बुजुर्ग तसल्ली से अखबार पढ़ते हुए दिखाई दिए. मैंने इशारा कर अंकल से कहा, वो जनाब सचमुच सुकून की जिंदगी जी रहे हैं. अंकल ने बताया कि वो आर्मी से रिटायर्ड अफसर हैं और अभी कुछ देर में उनकी वाइफ भी आ जाएंगी. फिर वो दोनों इस गुनगुनी धूप में बैठकर बातें करेंगे. मैंने प्रतिक्रिया दी और कहा कि सचमुच यही तो हैं जिंदगी.
हमारा अगला पड़ाव था मुक्तेश्वर से चंद किलोमीटर पहले सरगाखेत नाम की जगह. हमें सरगाखेत में एक कॉटेज में स्टे करना था. हालांकि रास्ते में हमने फोटो-वीडियो खिंचवाते काफी वक्त बिता दिया. हां, रामगढ़ में हमने ब्रेकफास्ट भी किया. यहां एक होटल में हमने ब्रेकफास्ट किया और फिर बाहर से ही 1 किलो आड़ू बंधवा लिए. हमने बलवंत भैया से कहा कि हम पैदल ही आगे बढ़ रहे हैं और जहां हम थक जाएंगे वहां से आपको फोन घुमा देंगे, आप पहुंच जाना.
हम सड़कों पर बैठते, पेड़ों की डालियों को पकड़ते, फोटो के लिए पोज देते आगे बढ़ रहे थे. आड़ू भी हम खा रहे थे. सभी साथी खुश थे. पहाड़ के घुमावदार कट पर हम थोड़ा सजग हो जा रहे थे. लेकिन फोटो तो हम खूब खिंचवा रहे थे. अब बारी आई थकने की और बलवंत भैया को फोन घुमाने की. तो हमने ऐसा करने में थोड़ा भी देर नहीं लगाई. हमारे फोन करने के कुछ ही मिनटों में बलवंत भैया हमारे सामने थे. हमने उनसे कहा कि वह गाड़ी के स्पीकर फुल कर पहाड़ी गाने बजा दें. फिर हमने वहीं पहाड़ी गाने पर डांस भी खूब किया.
अब हम सभी गाड़ी में बैठ लिए. हम सरगाखेत पहुंचे. यहां पहुंचने से पहले रास्ते में सेब, आड़ू और नाशपती के पेड़ों ने हमारा स्वागत किया. मैं पहली बार नाशपती के पेड़ देख रहा था. हमने कुछ नाशपती खाए भी. वाह क्या पल था वह. पूछते पूछते हम कॉटेज वाली जगह पर पहुंचे. यहां के केयरटेकर गणेश भैया ने हमें जगह दिखाई.
कॉटेज में पहुंचते ही हम सभी गद्दों पर पसर गए. मुक्तेश्वर की ये जगह बेहद शानदार थी. कॉटेज के ठीक सामने और पीछे की तरफ घाटी थी. इन घाटियों में बने मकानों को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने हरी भरी वादियों में मोती बिखेर दिए हों. मैं काफी देर तक एकटक उस दृश्य को निहारता रहा. हमारे कई साथी फ्रेश हो रहे थे. कुछ फैमिली को वीडियो कॉल कर रहे थे और कुछ अपनी फोटो खींच रहे थे. मैंने ये सब देखकर मनुष्य के मन की स्थिति को समझ रहा था…
पहला दिन, Bhalu Gaad Waterfall, Photography
मुक्तेश्वर के सफर पर पहले दिन यानी शुक्रवार की सुबह हम सभी पहाड़ों का दीदार कर लेने को बेताब थे. हां, भूख भी बहुत तेज लगी थी. गणेश भैया इस मोर्चे पर तैनात थे. उन्होंने हमारे पहुंचने के कुछ ही देर बाद खाना तैयार कर दिया था. दाल, रोटी, चावल और सब्जी रेडी था. साथ में था सलाद. अब पहाड़ों के बीच अगर ऐसा देसी खाना मिल जाए तो कहने ही क्या. हम सभी खाने पर टूट पड़े थे.
जमकर खाने के बाद हम बिस्तरों पर लेटकर आराम फरमाने लगे. रमोला और मिंटू भाई सो चुके थे. मैं, वासु, संजय और विपिन भाई जाग रहे थे. हमने कहा- क्यों न बाहर जाकर एक बार माहौल का मजा लिया जाए. हम चारों बाहर चल दिए. जिस कॉटेज में हम ठहरे थे, उसके आगे और भी कॉटेजेस बने थे जो हमारे वाले से भी खूबसूरत थे. हमने वहां तक का शूट किया और जमकर हंसी मजाक भी किया. फिर हमने स्पाइडरमैन की स्टाइल में जंप करते हुए फोटो क्लिक्स भी कीं. हमारे ये पोज किसी को भी हैरान कर देने के लिए काफी थे.
यहां से हम वापस लौटे. सबने सवाल किया अब क्या किया जाए. आप जानते ही होंगे कि ग्रुप ट्रेवल में सभी को किसी भी एक काम के लिए एकमत और एकजुट करना बेहद मुश्किल होता है. मैंने गणेश जी से पूछा कि हम आस पास कहाँ घूम सकते हैं, गणेश जी ने बताया कि पास में मुक्तेश्वर महादेव मंदिर है और भालू गाड़ वाटरफॉल भी है. हमने तय किया कि हम भालूगाड वाटरफॉल आज ही जायेंगे बाकी मुक्तेश्वर महादेव मंदिर और बाकी इलाकों को अगले दिन कवर करेंगे.
यहां मेरे सामने चैलेंज ये था कि सो रहे, थके हुए, और बिना तैयार हुए बैठे ऊंघ रहे साथियों को भालूगाड़ वॉटरफॉल के लिए राजी किया जाए. मैंने और विपिन ने मिलकर सभी को समझाया और सभी को भालूगाड़ वॉटरफॉल आज ही घूमने चलने के लिए राजी किया. अगले कुछ मिनटों, या यूं कहें कि अगले 30 मिनट में हम सभी तैयार थे और अपनी इनोवा के पास पहुंच चुके थे.
गणेश जी ने हमसे जाते जाते ये भी कहा कि हम लौटते वक्त उन्हें नीचे सरगाखेत मार्केट से फ़ोन करना न भूलें ताकि वो हमें जरूरी सामानों के बारे में बता सकें. हमने हामी भरी और निकल पड़े भालूगाड़ वॉटरफॉल के लिए. Baboobosa के पेड़, हरी भरी घाटियां, बादलों की लंबी श्रृंखला आंखों से होकर दिल में उतर रही थी. हम रास्ता पूछते पूछते आगे बढ़ रहे थे, हालांकि हम कई बार भटके भी लेकिन फाइनली भालूगाड़ वॉटरफॉल के प्रवेश द्वार पर हमारी गाड़ी पहुंची.
भालूगाड़ वॉटरफॉल एकदम पहाड़ी की तलहटी में है. कहाँ तो हम 30 मिनट पहले तक पहाड़ों की चोटी पर खड़े होकर आसमान से बातें कर रहे थे और कहां एकदम पहाड़ की तलहटी में आ गए. क्या रंग है ये भी प्रकृति का. ध्यान रहे तलहटी में सिर्फ भालूगाड़ वॉटरफॉल का प्रवेशद्वार ही है. मुख्य झरना यहां से कुछ किलोमीटर चलने के बाद दिखाई देता है.
भालूगाड़ वॉटरफॉल के प्रवेशद्वार से अंदर जाते ही हम सभी झूम उठे. शांत माहौल, पानी की कल कल करती आवाज, और चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर हम मानों दीवाने हो उठे. हम बहते पानी में फ़ोटो खिंचवाते, वीडियो बनाते आगे बढ़े ही जा रहे थे. खुशी के इस अद्भुत माहौल में हम जरा सी चूक कर बैठे, जिसके बारे में मैं आपको आगे बताऊंगा.
कुछ ही मीटर चलने और थोड़ी चढ़ाई करने के बाद हम एक झरने के पास पहुंच गए. हमें ये ज्यादा ऊंचा तो नहीं लगा लेकिन पानी और झरने को देख लेने की खुशी में ये आंकड़ेबाजी हमारे दिमाग में आई ही नहीं.
हम कोई 5 बजे झरने पर पहुंचे थे. हमने झरने यानी भालूगाड़ के इस छोटे वॉटरफॉल पर तस्वीरें खिंचवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कोई झरने के सामने खड़े होता, कोई नीचे लेटता, कोई पानी के आगे स्टाइल दिखाकर तस्वीरें खिंचवा रहा था. मजे की बात तो ये थी कि सभी ये तो चाह रहे थे कि उनकी तस्वीरें जमकर खींची जाए लेकिन किसी दूसरे की फ़ोटो जब क्लिक करने की बारी आती तो वो कम ही तस्वीरें क्लिक करना चाहते थे
अब आया इस दृश्य का रोमांचक मोड़. हमारे रमोला भाई फ़ोटो खिंचवाने की आपाधापी में पानी में ही गिर गए. वो तो भला हो इस छोटे वॉटरफॉल का, जो सिर्फ चंद मीटर ही गहरा था. हालांकि हमारे रमोला भाई सीने तक पानी में थे. उनके शरीर के वजन ने कम से कम 3 आदमी लिए बाहर आने में. अब क्या उनके पूरे कपड़े गीले और वो कांपते एक तरफ जाकर खड़े हो गए. जब देखा कि वहां हमारी जगह कोई भी दूसरा ग्रुप नहीं है तो उन्होंने अपने कपड़े उतार दिए और अंतरवस्त्र में ही गाड़ी में जाकर बैठ गए.
जब ये खबर हम तक पहुंची तो हम भी उनके पीछे पीछे चल दिये. हम बाहर जा ही रहे थे कि प्रवेशद्वार पर टिकट काटने वाले गार्ड भैया हमें रास्ते में मिल गए. वो अपने घर जा रहे थे. उनका गाँव इसी पानी रास्ते को पार करने के बाद ऊंचाई पर था. ये सब उन्होंने हमें बताया. मैं हैरान था. हर रोज इतनी ऊंचाई से उतारना और फिर चढ़ना कितना जीवटता भरा काम है. फिर उन भैया ने हमसे पूछा कि आप लोग बड़ी जल्दी आ गए? मैंने जवाब दिया, वॉटरफॉल बहुत पास था न! उन्होंने कहा फिर आप लोग छोटे वॉटरफॉल पर ही पहुँच पाए. बड़ा 54 फीट ऊंचा और कोई 40 से भी ज्यादा मीटर गहरा है. हम भौंचक्क रह गए. जिस वॉटरफॉल को हम भालूगाड़ वाटरफॉल समझ रहे थे, वो दरअसल भालूगाड़ वॉटरफॉल था ही नहीं!
अब क्या! हम मायूस थे. हमने तय किया कि अगले दिन फिर से वॉटरफॉल आएंगे. फिर हम चल दिये अपने कॉटेज की तरफ.
भालूगाड़ वॉटरफॉल के मुख्य प्रवेशद्वार से बाहर आकर हमें एक बच्चा दिखाई दिया. बच्चे के हाथ में बब्बू बोसा था और वो 50 रुपये किलो के रेट पर उसे बेच रहा था. बच्चे को देखकर मैंने सोचा ये पास के पेड़ से तोड़कर लाया होगा, क्यों न हम भी तोड़ लें! मैं ये सोच ही रहा था कि मिंटू भाई ने उस बच्चे को 50 का नोट थमा दिया. 50 रुपए पाकर उस बच्चे का चेहरा ऐसा खिला मानों उसने कोई मुंह मांगी मुराद हासिल कर ली हो. उसकी ये मुस्कान देखकर मैं भी हंस दिया. वो बच्चा बहुत दूर तक नोट को देखते हुए जाता रहा…
अब यहां से हम सरगाखेत मार्केट में आ गए. मार्केट में रमोला भाई ने अपने लिए अंडरगारमेंट्स लिए, हम लोगों ने सब्जियां, ब्रेड, मटन आदि सामान पैक कराये. इसके बाद अगले कुछ मिनटों में हम वापस रिसोर्ट आ गए.
रिजोर्ट में आकर हम रिलैक्स के मूड में आ गए. मुझे और संजय को छोड़कर बाकी साथियों ने ड्रिंक्स तैयार कर लीं और फिर देर तक पीने का दौर चलता रहा. मैं चूंकि ड्रिंक नहीं करता हूँ इसलिए मैं संजय के साथ दूसरे रूम में था लेकिन बाकी लोगों के आग्रह पर मैं भी उस मंडली में आकर बैठ गया. विपिन और बाकी साथी पीकर मस्त हो चुके थे.
मैं भी उन्हें देखकर एन्जॉय कर ले रहा था. रात के करीब 11 बजे विपिन ने पहाड़ी पर जाने की जिद की. ये सुनकर मेरी हालात पतली हो गयी. मैंने उनका हाथ पकड़ लिया और विनती करने लगा कि भाई हम यहीं बैठ लेते हैं क्यों खामखां ऊपर जाना. कई बार कहने पर विपिन मान तो गए लेकिन कॉटेज की सीढ़ियों पर बैठकर लगे भूत प्रेत की कहानी बतियाने. विपिन का गाँव भी गढ़वाल में ही है इसलिए उनके पास कहने के लिए कई कहानियां थीं.
कहानी का सिलसिला चले ही जा रहा था, चले ही जा रहा था… नौबत फिर आयी और मैंने रिकवेस्ट किया कि अब बस कीजिये. फिर मैं हाथ पकड़ पकड़कर सबको अंदर ले गया. सबने खाना खाया और गाते गुनगुनाते नींद के आगोश में चले गए.
मुक्तेश्वर- दूसरा दिन, Mukteshwar Mahadev Mandir, Chauli ki Jali, Bhalu Gaad waterfall
मुक्तेश्वर यात्रा के दूसरे दिन, बारिश की बूंदों की आवाज सुनकर मेरी नींद खुली. विपिन मुझसे पहले उठ चुके थे और बार शूट भी कर रहे थे. सुबह आंख खुलने के बाद मुझे चिंता हुई कि कहीं बाथरूम घेर न लिया जाए और मैं सबसे पीछे रह जाऊं लेकिन बारिश और मौसम ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं बाहर जाकर कुछ पल पहले गुजार लूं. मैं बाहर गया और धुंध में लिपटे मौसम ने मेरा स्वागत किया. बारिश की बूंदों ने पूरा माहौल खुशनुमा बना रखा था. मैं बालकनी में बैठकर एकटक बादलों को देखता रहा. उमड़ते घुमड़ते बदरा जैसे सभी से कह देना चाह रहे थे कि देखो असली सुंदरता तो हम हीं से है. मैं काफी देर तक मौसम की अठखेलियां देखता रहा. फिर अचानक से पीछे से आवाज आई- मुकेश बाथरूम खाली है, जल्दी जा… मैं तुरंत उठा और कपड़े लेकर बाथरूम में चला गया. अगले २० मिनट में मैं तैयार हो चुका था. हालांकि ग्रुप के एक दो साथी अभी भी ऊंघे पड़े थे. हम सबने जोर लगाया तो उन्हें भी तैयार होने की सुध आई.
गणेश भैया ने हम सभी के लिए ब्रैड सेंके थे. पराठें भी थे. अंडा भुर्जी भी तैयार की गई थी. मैं शाकाहारी था तो सिर्फ परांठे खाए. बाकी साथियों ने मजेदार जायके का लुत्फ लिया. खा-पीकर हम सचमुच टन्न हो चुके थे. मॉर्निंग ब्रेकफास्ट तो वही था दोस्तों. जब तक अंदर कुछ साथी खुद को आखिरी टच दे रहे थे, मैं, वासु, संजय संग बाहर फोटो खिंचवाने में मशगूल हो गया. बाहर हम अलग अलग पोज दे रहे थे कि एक वहां की स्थानीय महिला मुझे दिखाई दी. मैंने उस महिला से पूछा कि वह कहां से है? उन्होंने हाथ दिखाकर बताया कि उनका गांव उस तरफ है. मैंने उनसे उनके परिवार के बारे में पूछा और उनके पति के बारे में… उन्होंने कहा कि उनके पति बाहर काम करते हैं और वह गांव में खेती संभालती हैं. सच में दोस्तों, पहाड़ के लोग बड़े जीवट होते हैं. प्रकृति ने उन्हें शायद अलग ही कलेजा दे रखा है. आंटी जी से मैं बात कर ही रहा था कि मेरे दोस्त लोग आ गए. अब हम सभी मुक्तेश्वर महादेव मंदिर के लिए आगे बढ़ गए.
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एक पहाड़ी सॉन्ग जिसका मैं पूरे सफर में दिवाना बन गया, वो था चैता की चैतवाल… मुक्तेश्वर के सफर में भी हम इसी गाने पर झूमते रहे. नाचते झूमते, गाड़ी में गुनगुनाते न जाने कब मुक्तेश्वर महादेव मंदिर भी आ गया. इस मंदिर के बाहर जो जानकारी दी गई थी, उसके मुताबिक ये हजारों साल पुराना है. ये अपने आप में बेहद खास था. मंदिर के बाहरी प्रांगण के दरवाजे पर सीढ़ियां थी, जहां से हमने चढ़ना शुरू किया, अगले कुछ ही मिनटों में, या यूं कहें कि दस मिनट से भी कम वक्त में हम मंदिर के मुख्य परिसर में थे. यहां से एक तरफ जंगल थे तो थोड़ा ऊपर चढ़कर चौली की जाली आपका स्वागत कर रही थी. आप वहां खड़े होकर चौली की जाली को देख सकते हैं.
हमने मंदिर में भगवान के दर्शन किए. मंदिर के गर्भगृह के चारों तरफ लोगों ने ढेर सारी चुनरियां बांधी हुई थी. देश के कई मंदिर परिसर में आपने ऐसा नजारा देखा ही होगा. लेकिन यहां इस वजह से मंदिर ही पूरी तरह से ढक गया था. आप इसी बात से मंदिर की महिमा का अंदाजा लगा सकते हैं.
गर्भगृह से बाहर आकर हमने नीचे देखा तो दूर हमें चौली की जाली नजर आई. गूगल पर मुक्तेश्वर की तस्वीरें खोजने पर आपको चौली की जाली ही नजर आती है. मैंने ये दृश्य गूगल पर देख लिया था इसलिए मुझे उन चट्टानों को समझते देर नहीं लगी. हमने लोगों से वहां तक जाने की जानकारी ली, हालांकि हमें मंदिर के बाईं तरफ से जाने की जानकारी मिली. ये रास्ता थोड़ा लंबा था, जिसका पता हमें बाद में चला, जब वापसी में हम छोटे रास्ते से लौटे. जंगलों से होते हुए हम चॉली की जाली पहुंचे.
चौली की जाली (Chauli ki Jali)
चौली की जाली एक बेहद शांत जगह है. यहां कुछ चट्टाने पहाड़ी की ऊंचाई से बाहर की तरफ निकली हुई हैं. प्राकृतिक रूप से बनी इस संरचना की ओर हर कोई खिंचा चला आता है. चट्टानों पर कई प्रेमी जोड़ों ने तो अपने नाम तक उकेर रखे हैं. मैं हैरत में पड़ गया कि चौली की जाली पर आखिर नाम लिखने के लिए उन्होंने किस चीज का इस्तेमाल किया होगा.
चौली की जाली पर ही हमें एक लड़कियों का ग्रुप दिखाई दिया. काफी मॉडर्न लुक में ये लड़कियां बिंदास होकर वहां घूम रही थीं. ट्रैवल जुनून की टीम ने उन लड़कियों के पास जाकर उनसे बातचीत की. उन्होंने बताया कि वे सभी दिल्ली से आई हैं. बड़ी बात ये थी कि वे अलग तरीके से पहले ट्रेन से काठगोदाम पहुंचीं थी, फिर वहां से बस से मुक्तेश्वर. वे अपनी फ्रेंडशिप के 16 साल सेलिब्रेट करने के लिए मुक्तेश्वर आई थीं. हमारी उनसे लंबी बातचीत हुई.
अब हमने एक परिवार का रुख किया. ये परिवार सोनीपत से वहां आया था. इस परिवार से बातचीत भी हुई और मुक्तेश्वर सहित उत्तराखंड की अन्य घूमने वाली जगहों पर चर्चा भी. कुछ उन्होंने बताया, कुछ हमने. फिर उस ग्रुप की एक बुजुर्ग महिला ने हमें आम दिए खाने को… हमारे ग्रुप के कुछ साथी तस्वीरों में बिजी थे तो मैं एक स्थानीय शख्स के पास पहुंचा, जो वहीं कोल्डड्रिंक, नींबू पानी बेच रहा था. मैंने उससे पूछा कि आसपास और क्या है घूमने के लिए? उसने कहा कि चौली की जाली आपने घूम लिया?
दरअसल, मैं जिसे चॉली की जाली समझ रहा था, वह चट्टान भर थी. मुख्य चौली की जाली उसी के बगल में एक दूसरी चट्टान थी जिसमें एक बड़ा सा सुराख था, जिसे जाली कहते हैं और चौली पहाड़ों को. चौली की जाली वही थी. मुझे इसके बाद उस शख्स ने उसकी विशेषता बताई. उस शख्स ने बताया कि हर साल शिवरात्रि पर यहां एक बड़ा मेला लगता है जिसमें निःसंतान महिलाएं आकर उस जाली से पार होती हैं. ऐसा विश्वास है कि ये करके उन्हें संतान प्राप्ति होती है. मैंने उस शख्स की बाइट का पूरा वीडियो बनाया. हालांकि ये थोड़ा अंधविश्वास भरी बात लगती है लेकिन लोगों का भरोसा क्योंकि इस चीज पर है इसलिए इसे नकारना संभव भी नहीं था.
चौली की जाली से होकर और कुदरत को करीब से निहारकर हम वापस लौटे. मुक्तेश्वर मंदिर के बाहरी परिसर के निकट पहुंचकर हमने तय किया कि यहां से हम पैदल ही चलेंगे और जहां थक जाएंगे, वहां ड्राइवर भैया को बुला लेंगे. हमने चलना शुरू किया. मुक्तेश्वर महादेव मंदिर जाते हुए हमें रास्ते में 1905 का पोस्टऑफिस दिखाई दिया था. हमने वापसी में उस पोस्टऑफिस में जाकर वहां तस्वीरें खिंचवाई. ये बेहद खास पल था. हम आगे बढ़े तो हमे आईवीआरआई दिखा, जिसका पूरा नाम इंडियन वेटरनिटी रिसर्च इंस्टिट्यूट है. मेरे एक मित्र के पिताजी यहां काम करते थे, इसलिए उनके बचपन का बड़ा हिस्सा यहां मुक्तेश्वर में बीता था. उन्होंने मुझसे मुक्तेश्वर की कई यादें साझा की थी, इसलिए मैंने यहां की तस्वीरें और वीडियो क्लिक कर उन्हें भेजने में देर नहीं लगाई. वो बेहद भावुक हो गए थे.
मुक्तेश्वर मंदिर से पैदल चलते चलते हम IVRI तक पहुंच चुके थे. यहां धुंध की छटा थी और माहौल बेहद हरा भरा था. यहीं पर मैंने एटीएम से पैसे भी निकाले. अब हमने यहीं पर बलवंत भैया को बुलाने का फैसला किया. बलवंत भैया 10 मिनट से भी कम वक्त में हमारे सामने थे. लेकिन एक दूसरी समस्या खड़ी हो गई. ग्रुप के एक सदस्य, रमोला भाई की जिद थी कि हम भालूगाड़ वाटरफॉल नहीं जाएंगे क्योंकि हम एक दिन पहले वहां जा चुके थे. वहीं, ग्रुप के बाकी सदस्य चाहते थे कि भालूगाड़ वाटरफॉल जाकर 54 फीट ऊंचे झरने को देखा जाए. ऐसा कर हम व्लॉग की खूबसूरती बढ़ा लेते. लेकिन रमोला भाई टस से मस नहीं हो रहे थे. बहुत मनाने, बहुत ज्यादा मनाने, हाथ पैर जोड़ने की नौबत आ जाने के बाद रमोला भाई तैयार हुए.
भालूगाड़ वाटरफॉल (Bhalu Gaad Waterfall)
भालूगाड़ वाटरफॉल (Bhalu Gaad Waterfall) के लिए रमोला भाई के हां कहने की देर थी कि बलवंत भाई की गाड़ी हवा से बातें करने लगी. बेहद अच्छी सड़कें, सुंदर माहौल और उमड़ते घुमड़ते बदरा यात्रा में चार चांद लगा रहे थे. हम अगले 25 मिनट में भालूगाड़ झरने (Bhalu Gaad Waterfall) के प्रवेश द्वार पर थे. यहां हमें वही सिक्योरिटी वाले भाई साहब मिले जिनसे एक दिन पहले मुलाकात हुई थी. हमने अंदर चलना शुरू किया. जिस झरने पर हम एक दिन पहले पहुंचे थे. हमारा सफर तो उसके बाद शुरू होना था. पहले झरने से पहले हर जगह तो हम देख चुके थे लेकिन उसके बाद हम अलग तरह के रोमांच को फील कर पा रहे थे. झरने के बहते पानी को पार करते वक्त हम शरारतों का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे.
मैंने जूते पहने थे इसलिए अब गिरा-तब गिरा वाली हालत में जाते जाते आखिर में मैं उसे पार कर ही जा रहा था और मेरे जूते-जुराब गीले होने से बच जा रहे थे. हमने इस तरह से करीब 2 पानी के रास्तों को पार किया.
रास्ते में चढ़ाई भी आई. उस पूरे माहौल में ऐसा लग रहा था, कि हम ही हैं. हमें कोई और दिखाई ही नहीं दे रहा था. हम तेजी से आगे बढ़े जा रहे थे. इसके बाद हमें दूसरा झरना दिखाई दिया. इस दूसरे झरने के आसपास खतरनाक चट्टाने थीं और यहां कोई और था भी नहीं. हां, पास में गोभी की खेती जरूर हो रही थी. पहाड़ी जगह पर गोभी की खेती देखना, बेहद दिलचस्प था.
हम थोड़ा सा और आगे बढ़े. एक छोटा पुल और फिर आ गया भालूगाड़ वाटरफॉल (Bhalu Gaad Waterfall). भालूगाड़ वाटरफॉल (Bhalu Gaad Waterfall) पर कई लोग लाइफजैकेट्स पहनकर डुबकियां मार रहे थे, क्लिफ जंपिंग कर रहे थे और तैराकी कर रहे थे. ये झरना 40 फीट गहरा भी है इसलिए यहां सुरक्षा का पूरा ख्याल रखना होता है. आप यहां 50 रुपये में लाइफ जैकेट्स किराए पर ले सकते हैं. प्रोफेशनल स्विमर आपकी मदद के लिए रहते हैं. ये क्लिफ जंपिंग से लेकर तैरने तक में आपके साथ रहते हैं.
हमारे ग्रुप के दो सदस्यों वासु और मिंटू भाई ने तैराकी की, क्लिफ जंपिंग भी की. भालूगाड़ वाटरफॉल (Bhalu Gaad Waterfall) पर हमले ढेर सारी मौज मस्ती की. हम फिर से उसी रास्ते से, उन्हीं छोटी छोटी पगडंडियों को पार करते हुए, उसी जंगल के रास्ते से वापस लौटे. जब हम भालूगाड़ झरने के मुख्य प्रवेश द्वार पर थे, तभी हमें एक दूसरे शख्स आते दिखाई दिए, जिन्होंने होमगार्ड्स की ड्रेस पहनी हुई थी. उन्होंने हाथ में मटन लिया हुआ था. मैंने उनसे पूछा भैया यहां कहां जाओगे?
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मुझे लगा इस जंगल में वो अब क्या करने जा रहे होंगे! उन्होंने मुझे पीछे मुड़कर देखने को कहा और बताया कि वो ऊंचाई पर उनका गांव है. मैंने पीछे देखा तो दूर पेड़ों के पीछे छिपे मुझे कुछ घर दिखाई दिए. मैं सचमुच दंग रह गया. हर रोज इतनी ऊंचाई से चढ़ना और फिर उतरना, कितनी जीवटता होती है पहाड़ पर जिंदगी बसर करने वाले इन लोगों में, वाकई दिल से सलाम है दोस्तों.
हम इन लोगों की लाइफस्टाइल, रोज के काम पर, लंबी चर्चा करते रहे. और फिर बाहर लौट आए. बाहर आकर हमने सोचा कि यार हमें मुक्तेश्वर में दो दिन हो गए और अभी तक हमने बॉर्नफायर नहीं किया. हम सोच ही रहे थे कि विपिन भाई और वासु पास की ही एक दुकान से कुछ सामान लेने चले गए. वह वहां से पानी की बोतल, चिप्स वगैरह खरीद रहे थे. वहीं दुकानदार से उन्होंने लकड़ी वाली बात शेयर कर डाली. दुकानदार उन्हें घर के पिछले हिस्से में लेकर गया, वहां वह बड़े पैमाने पर बब्बूबोसा की पैकिंग का काम कर रहे थे, जिसे वो एक्सपोर्ट किया करते हैं. उन्होंने हमारे ग्रुप के साथियों को न सिर्फ लकड़ी दी, बल्कि बब्बूबोसा भी दिया. और पैसे की मांग भी नहीं की. विपिन भाई ने जब पैसों के लिए पूछा तो उन्होंने कहा कि हमारी मां को जो बन पड़े दे दीजिए.
विपिन भाई ने उन्हें 100 रुपये दे दिए. अब वक्त था वापिस कॉटेज लौट चलने का. बलवंत भाई ने गाड़ी स्टार्ट की और 25 मिनट के समय में हम सरगाखेत के बाजार पहुंच चुके थे. वहां पर हमने सुबह नाश्ते के लिए ब्रेड, बटर, सब्जियां, अंडे लिए और रात के खाने के लिए भी कुछ सब्जियां, चिकन वगैरह लिए. दोस्तों इस पूरे सफर में पहाड़ी लोगों से मिल रहा था, दुकानदार, हमारे खाना बनाने वाले गणेश भैया, रास्ते पर लोग, वो जिनसे हम रास्ता पूछ रहे थे, दोस्तों ये सभी ऐसा लग रहा था जैसा स्वार्थ, लोभ से कोसों दूर हैं. मैं वाकई पहाड़ के लोगों को दिल से सलाम करना चाहूंगा.
हम वापिस रिजॉर्ट लौट आए. जो पीने वाले थे, उन्होंने चखने का अलग अलग फ्लेवर रेडी कराया, ड्रिंक्स रेडी कीं और जुट गए मदमस्त होने में. लेकिन बाहर एक परेशानी खड़ी हो गई थी. जिस लकड़ी को हम बेहद ही अरमानों से लेकर आए थे, वह जलने का नाम नहीं ले रही थी. पहले मैं जुटा, फिर संजय, फिर मैं, संजय, वासु तीनों जुटे, फिर ग्रुप के और साथी भी आए, फिर हम 6 के 6 जुट गए लेकिन वह जलने का नाम नहीं ले रही थी. जब घंटा भर बीत गया तो खाना बनाने का काम छोड़कर गणेश भैया आए. गणेश भैया ने कुछ लकड़ियों की छाल इकट्ठा की और फट्ट से जला दिया हमारी लाई लकड़ियों को. बस फिर क्या था, हम लगे झूमने. कोई पीता, कोई गाता और मैं कैमरे पर क्लिक करता हर मोमेंट्स.
देर रात तक हम मस्ती करते रहे. फिर लकड़ियों की आग मद्धिम पड़ने लगी और सर्दी भी ज्यादा होने लगी. ठिठुरन बढ़ी और बाकी लोगों के पैग खत्म हुए तो हम भी भागकर लौट आए, अपने कॉटेजेस में. शंकर भैया ने खाना तैयार रखा था, और हम जोर के भूखे थे, टूट पड़े खाने पर.
खा पीकर हम सभी निढाल थे, सो बिस्तर पर गिरते ही नींद आ गई.
मुक्तेश्वर यात्रा- तीसरा दिन (Kainchi Dham, Bhimtal, Bhuwali)
मुक्तेश्वर यात्रा का तीसरा दिन बेहद क्रिटिकल था. सुबह का समय हिसाब किताब करने में बीत गया. फिर देखते ही देखते 10 बज गए. ग्रुप के लोगों की ढिलाई अलग. कोई 11 बजे के आसपास हम सरगाखेत के अपने कॉटेज से निकल पाए. हमारा सफर शुरू हुआ तो सीधा जाकर हम रुके कैंची धाम, नैनीताल (Kainchi Dham, Nainital) में. 1962 में बने इस कैंची धाम की खासी महिमा है. स्टीव जॉब्स और मार्क जकरबर्ग भी यहां आ चुके हैं. कहते हैं कि कैंची धाम (Kainchi Dham, Nainital) ही एपल और फेसबुक का सक्सेस सीक्रेट है. यहां भारी मात्रा में स्टार्टअप्स की तरफ से फंडिंग आती है. मुझे वहां कई भारतीय मिले जो यूएस से आए थे, बड़ी बात ये कि सभी यंग थे.
कैंची धाम (Kainchi Dham, Nainital) के बारे में कहा जाता है कि बाबा नीम करोली ने 1962 में इसकी स्थापना की थी. उन्हें हनुमान का अवतार कहा जाता है. मंदिर में प्रवेश करते ही, मैं एक ऊर्जा को महसूस कर रहा था जो मेरे भीतर प्रवेश कर मुझे एक नया अहसास दे रही थी. मंदिर में बाबा नीम करोली की प्रतिमा भी है, जिसके आगे बैठकर लोग ध्यान भी लगाते हैं. मैं वहां 15 मिनट बैठा.
इसके बाद मैंने बाबा का वो आसन देखा जिसपर वो बैठा करते थे, वह आज भी अपने उसी रूप में है जैसा वह 60 के दशक में था. बाबा का वो कमरा जिसमें वह रहते, वह आज भी उसी तरह से बना है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है.
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कैंची धाम (Kainchi Dham, Nainital) के बाहर ही एक छोटी नदी बहती है. ऐसी कहानी है कि एक बार मंदिर में बन रहे भंडारे के भोजन में घी की कमी पड़ गई. बाबा ने भक्तों ले नदी का जल भरकर लाने और खाने में इस्तेमाल करने को कहा. भक्तों ने जब ऐसा ही किया तो वह पानी घी में परिवर्तित हो गया. ये अपने आप में बाबा नीम करोली की महिमा बता देने के लिए पर्याप्त है.
कैंची धाम (Kainchi Dham, Nainital) से आकर बाहर ही हमने स्नैक्स खाया. स्नैक्स खाकर हम पुनः वापसी की यात्रा पर आगे बढ़ चले. आगे जाकर हम भीमताल (Bhimtal) पहुंचे. भीमताल (Bhimtal) के बगल वाली सड़क पर काफी ट्रैफिक था. इसलिए हम बड़ी मुश्किल से न सिर्फ अपने, बल्कि गाड़ी पार्क करने की जगह तलाश सके. भीमताल (Bhimtal)पर हम कुछ मिनट रुके, तस्वीरें खिंचवाई . अगर आप भी भीमताल आते हैं तो यहां न सिर्फ बोटिंग का मजा ले सकते हैं बल्कि फिश एक्वेरियम, मस्जिद को भी देख सकते हैं.
भीमताल (Bhimtal) के बाद हमारा सफर अंत पर था. हमने हल्द्वानी में खाना खाया. अब हमें सीधा दिल्ली ही आना था. लेकिन ट्रैफिक ऐसा था कि हमें हापुड़ में फिर से खाने के लिए रुकना पड़ा. मेरा घर क्योंकि मोहन नगर के पास ही है इसलिए मैं देर से ही सही लेकिन बाकी लोगों की अपेक्षा थोड़ा जल्दी 10 बजे घर पहुंच गया था, बाकी लोगों को और भी लेट हुई घर पहुंचने में.
खैर, हमारा ये सफर बेहद खास रहा. सुनियोजित ढंग से ठहरना-खाना और ग्रुप का साथ होने से प्रति व्यक्ति का खर्च भी बेहद कम आया जो लगभग 4300 रुपये था. अनलिमिटेड मस्ती के सफर में ये रकम तो कुछ भी नहीं. आप भी अगर ट्रैवलिंग पर जाएं तो इन टिप्स को फॉलो कर सकते हैं.
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