Darul Uloom Deoband Tour – इस ब्लॉग में, मैं आपको दारूल उलूम देवबंद की अपनी यात्रा ( Darul Uloom Deoband Tour ) की जानकारी दूंगा. ये यात्रा मैंने गाज़ियाबाद में अपने निवास से की थी. इस यात्रा के दौरान मैंने किन साधनों का इस्तेमाल किया, कितना खर्च हुआ, कहां भोजन किया, ये सभी जानकारी मैं आपको दूंगा.
इस ब्लॉग से पहले, मैंने देवबंद पर एक और जानकारी से भरा ब्लॉग ( Darul Uloom Deoband Tour Blog ) लिखा है, आप उसे भी वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं. साथ ही, हमारे यूट्यूब चैनल पर देवबंद व्लॉग ( Darul Uloom Deoband Vlog ) को भी देख सकते हैं. वह वीडियो इसी आर्टिकल में एंबेड किया गया है.
कई हफ्तों पहले मेरे मन में देवबंद की यात्रा ( Deoband Tour ) का विचार आया था. यहां भारत का सबसे बड़ा मदरसा है और इस वजह से यह जगह अक्सर चर्चा में भी रहती है. इसी चर्चा ने मेरे भीतर एक कौतूहल पैदा किया हुआ था.
दिवाली की छुट्टियां हुईं थीं. गुरुवार को दिवाली थी, शुक्रवार को गोवर्धन पूजा. शनिवार और इतवार को मैं थोड़ा फ्री था, तो यह दिन मुझे देवबंद जाने के लिए एकदम मुफीद लगा. मैंने तत्काल की टिकट करा ली थी.
गाज़ियाबाद से मुझे जिस ट्रेन की बुकिंग मिली, वह योगा एक्सप्रेस थी. इस ट्रेन का नंबर 09031 है. गाज़ियाबाद रेलवे स्टेशन पर इस ट्रेन का समय सुबह 05:58 है और दो घंटे से कुछ ज्यादा समय में, यानि सुबह 08:16 बजे देवबंद पहुंच जाती है.
सुबह मैं साढ़े 5 बजे गाज़ियाबाद पहुंच चुका था. प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करने के थोड़ी देर बाद ट्रेन आ गई. मेरी बर्थ मिडिल की थी. मेरे पास एक छोटा बैग था, मैंने उसे वहीं सिरहाने रख दिया और सो गया. अलार्म दो घंटे बाद का सेट था. हालांकि ट्रेन में बमुश्किल 30 मिनट की ही टूटी-फूटी नींद ले पाया.
स्टेशन आने से कोई आधे घंटे पहले ही मैं नीचे उतर आया. नीचे जिनकी सीट थी, वह वहां नहीं दिखे, तो मैंने सीट को गिरा दिया. नीचे बैठे बैठे, कुछ देर फोन को देखा, कुछ देर बाहर खेतों को. और फिर आ गया देवबंद.
मैं 30 साल से गाज़ियाबाद में रह रहा हूं. हालांकि, यह पहला मौका था, जब मैं देवबंद रेलवे स्टेशन ( Deoband Railway Station ) पर था. कभी आने की ज़रूरत ही नहीं हुई. ये स्टेशन बेहद छोटा है. फिल्मों में जैसा स्टेशन दिखता है, जहां सिर्फ एक ट्रेन रुकती है, कुछ कुछ वैसा ही.
मैंने जब फुटओवर ब्रिज की ओर नज़र दौड़ाई तब देखा कि वह तो बेहद पतला था. ऊपर से गुज़रते वक्त जब मैंने नीचे देखा तो प्लेटफॉर्म ऐसे बने थे कि पटरियों से बच्चा भी उनपर चढ़ जाए. लेकिन क्यों रिस्क मोल लेना. फुटओवर ब्रिज है तो उसी से पार किया जाए.
देवबंद स्टेशन उतरा तो आभास हो गया कि यहां का मामला थोड़ा पुराना है. बगल में एक खंडहरनुमा इमारत थी. ऐसा लगा जैसे कोई मिल रही हो. एक दुकानवाले से पूछा भी, उन्होंने कहा कि 15 साल से यहां हूं, तबसे तो ऐसे ही है. मुझे तो वह 150 साल पुरानी इमारत मालूम हो रही थी.
यहां से सोचा कि रिक्शा कर लूं लेकिन फिर ख्याल आया कि रिक्शा मज़ा किरकिरा कर देगा. मैंने पैदल ही कुछ दूर चलने का फैसला किया. मैंने देखा कि स्टेशन वाली इस सड़क पर कई नर्सिंग होम/अस्पताल थे. कुछ दूर चलने के बाद मैंने रिक्शा कर लिया.
रिक्शे ने 20 रुपये में मुझे देवबंद मदरसे उतार दिया. अगर रिक्शे पर सवारी हों तो यह किराया 10 रुपये हो जाता है.
दारूल उलूम देवबंद ( Darul Uloom Deoband Tour ) में सबसे पहले मेरी नज़र गई मस्जिद पर. इसे रशीद मस्जि़द ( Masjid Rasheed, Deoband ) कहते हैं. पूरी जानकारी विडियो में है. मैं मस्जिद की ओर बढ़ा और कैमरा भी निकाल लिया. लेकिन फिर ख्याल आया सलीके का.
मैंने एक-दो छात्रों को रोककर पूछा तो उन्होंने कहा कि आपको मोहतमिम से इजाज़त लेनी होगी. सवाल उठा, ये मोहतमिम कौन हैं? पहले तो दिमाग में आया कि रिसेप्शनिस्ट होंगे, लेकिन फिर जब गूगल किया तो पता चला कि वीसी यानी वाइस चांसलर को उर्दू में मोहतमिम कहते हैं.
खैर, रशीद मस्जिद को थोड़ा पास से देखा. पता चला गया कि बेहद तरीके से इसे बनाया गया है. धन भी भारी खर्च किया गया है. संगमरमर की चमक देखते ही बनती है.
दारूल उलूम देवबंद ( Darul Uloom Deoband Tour ) में अब मेरे दिमाग में यह बैठा दिया गया था कि कुछ भी करना है तो मोहतमिम से परमिशन लेनी होगी. पूछ पूछकर चल दिया मैं भी मोहतमिम के ऑफिस में. यहां कदम रुके एक कमरे के बाहर.
यह ऑफिसनुमा कमरा था जिसमें फर्श पर कालीन बिछी थी और उसपर बैठे थे दफ्तर का कामकाज करने वाले एक सज्जन. मैंने उन्हें अपना परिचय दिया, वे बोले तशरीफ रखिए. फिर उन्होंने किसी को फोन किया, पता चला कि उधर वाले साहब अभी आए ही नहीं थे.
वह बोले बैठिए आप. एक लड़का उस दफ्तर में आकर फाइलें, कागज़ को ले जा रहा था, लेकर आ रहा था. वह बहुत ज़्यादा दौड़ भाग कर रहा था. मैंने उसके पैरों को ऑब्ज़र्व किया. उसके पंजे, चल चलकर किसी नाव की भांति चपटा गए थे.
अब ऑफिस का काम कर रहे जनाब ने इसी लड़के को चाय लाने भेजा. तकरीबन 20 से 25 मिनट बाद वह लड़का चाय लेकर आया. चाय ऐसी थी कि मलाई मारकर. ऐसी चाय मैंने आजतक न हीं पी. इसी चाय को कहते हैं मलाई मारकर.
वह चने भी लेकर आए थे. उबले हुए मसालेदार चने और यह चाय पीकर तबीयत खुश हो गई थी दोस्तों. चाय खत्म कि तो मुझे एक बुजुर्ग शख्स के साथ जाने के लिए कहा गया. अब मैं उस दफ्तर में पहुंचा जहां चंदे का हिसाब किताब रखा जाता है.
मुझे यहां एक बुज़ुर्ग शख्स से परिचित करवाया गया. यहां सभी लोग कालीन पर ही बैठकर काम करते हैं. यहां भी छोटी छोटी मेजों पर कामकाज चल रहा था. जिन जनाब से मैं मिला था, वह थे अशरफ उस्मानी जी.
हल्की नीली आंखें, लंबी दाढ़ी और दुनिया भर का ज्ञान समेटे उस्मानी साहब से मैंने कहा कि मैं यहां दारूल उलूम देवबंद को जानने आया हूं. वह थोड़ा गुस्सा गए. बोले- किसी भी मीडिया को देवबंद में अंदर आने की इजाज़त नहीं है.
क्या दिखा रहा है मीडिया? कितनी नफरत भर चुकी है समाज में. एक पक्ष को सरकार की कमियां नहीं दिखतीं, एक पक्ष को सरकार की अच्छाईयां. क्या सरकार ने सब बुरे काम ही किए हैं इतने सालों में?
वह बोले- आपको वीडियो बनाने की परमिशन नहीं दी जा सकती है. हां, क्या खातिरदारी करें आपकी, ये बताइए आप. मैं थोड़ा रुका… फिर कहा, सर आज भाई दूज का त्योहार है, और मैं वह त्योहार छोड़कर आया हूं, सिर्फ देवबंद को जानने के लिए.
मेरे यह कहते ही उस्मानी जी का ह्रदय पिघल गया. वह क्या बोले- याद नहीं… लेकिन अगले कुछ वाक्यों के बाद उन्होंने ये ज़रूर कहा कि आपको हम लाइब्रेरी दिखा देते हैं, और हॉस्टल. बाकी कहीं नहीं.
दोस्तों मैं सच कह रहा हूं. मैंने जीवन में हर धर्म को करीब से देखा है. हर धर्म की कट्टरता से भी वाकिफ हूं. लेकिन उस्मानी जी जैसा मुस्लिम आज तक नहीं देखा मैंने. मेरे दिल में उनके लिए जो सम्मान है, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता हूं.
उस्मानी जी मुझे अपने साथ ले चले थे. उन्होंने मुझे देवबंद की मुख्य इमारत दिखाई, जो यहां की पहचान है. यहां के हॉस्टल दिखाए. नए भी और पुराने भी. लाइब्रेरी दिखाई. ये सभी बातें आप वीडियो में देख सकेंगे.
उस्मानी जी ने लाइब्रेरी के बारे में अनोखी बातें भी बताईं. देवबंद के इस मदरसे में उर्दू में लिखी ऋग्वेद है, सोने के कागज़ पर लिखा कुरान है. कई ऐसी नायाब पुस्तकें हैं, जिन्हें आपने कहीं और नहीं देखा होगा.
उस्मानी जी मुझे मदरसे की नई लाइब्रेरी बिल्डिंग को दूर से दिखाकर लौट आए. मैं वजह भी समझ गया. इस लाइब्रेरी को लेकर कई बखेड़े खड़े हो चुके हैं. हालांकि यह भी बेहद प्लानिंग से बना एक उत्कृष्ट भवन है.
उस्मानी जी मुझे घुमाकर फिर अपने दफ्तर में लेकर आए. मैं चलने को हुआ तो उन्होंने कहा कि ठहरिए, कॉफी आ रही है. कुछ देर में कॉफी आई. साथ में अमरूद भी आ गए.
देवबंद में उस रोज हाल ऐसा था कि उस्मानी जी जो कुछ क्षण पहले गुस्साए हुए थे, वह अभी मुझे अमरूद काटकर खिला रहे थे. कमाल की चीज़ है दोस्तों ये जज़्बात भी. मैं समझ गया, ज़रूर उन्हें भी अपनी बहनों से बहुत स्नेह होगा.
बातों का सिलसिला चला… चलता गया. वह बोल पड़े… आपने वह भाई दूज वाली बात कह दी और हमें अपने ट्रैप में फंसा लिया. हम अभी तक आपके ट्रैप में हैं. मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े.
उस्मानी जी, ईटीवी उर्दू के शुरुआती पत्रकारों में से रहे हैं. उन्होंने मुझसे पूछा कि अब कहां जाएंगे आप? मैंने कहा कि शाकुम्भरी देवी के मंदिर जाना है. वह बोले- मैं पहला पत्रकार हूं जिसका कैमरा शाकुम्भरी देवी मंदिर में गया था.
देवी की शक्ति बहुत ज़्यादा है. वह चाहेंगी तो रिकॉर्डिंग होगी, वह चाहेंगी तो रिकॉर्डिंग नहीं होगी. उन्होंने मुझसे पूछा कि कैसे आए हो, जब मैंने बताया कि ट्रेन से. तब उन्होंने मुझे बस से जाने का रास्ता भी बताया.
हालांकि मेरा अंदाज़ा गलत था. देवबंद एक तरफ, सहारनपुर एक तरफ और बेहट का ये शाकुम्भरी देवी मंदिर एक तरफ. मैंने इसकी रिसर्च नहीं की थी और मुझे इसका खामियाज़ा बाद में उठाना भी पड़ा.
खैर, अब चलने का वक्त था. मैंने सभी को शुक्रिया कहा और चल दिया बाहर की ओर. चलने से पहले मैं वापस उस दफ्तर में भी गया जहां शुरुआत में गया था, और वहा उन शख्स को धन्यवाद कहा जिन्होंने मेरी मुलाकात करवाई थी.
अब मैं पहुंचा देवबंद की रशीद मस्जिद. सफेद संगमरमर से बनी यह मस्जिद अजूबे से कम नहीं है. मैंने आजतक ऐसी मस्जिद नहीं देखी है. कमाल की खूबसूरती है इसकी.
मैंने मस्जिद के चप्पे चप्पे को कवर किया. मुझे छात्रों की एक लाइब्रेरी इसकी बेसमेंट में भी दिखाई दी.
देवबंद के बाज़ार में निकलते ही मुझे इत्र के कुछ शॉप दिखाई दिए. इसमें सबसे मशहूर ब्रैंड अजमल भी था. मैं अंदर दाखिल हुआ तो देखा कि 5 हजार का इत्र भी मौजूद था अंदर.
मुझे वहां रिकॉर्डिंग की परमिशन नहीं मिली. बाहर आकर देखा तो सड़क के दूसरी ओर स्टूल पर भी इत्र बिक रहे थे. एक सड़क के दोनों किनारों पर दो दुनिया थी.
अब मैं एक खजूर बेचने वाले शख्स के पास गया. यह शख्स ईरान, इराक, सऊदी के खजूर बेच रहे थे.
जब मैं मुख्य सड़क पर आने के लिए एक रास्ते से गुज़र रहा था, तब मैंने देखा कि हॉस्टल की इमारत वहां भी मौजूद थी. अब मैं समझ चुका था कि बच्चों की संख्या बहुत ज़्यादा होने की वजह से काफी संख्या इस बिल्डिंग में भी रहती है.
यहां मैंने बच्चों को अपने काम में लगा देखा. यह बच्चे पूरी तरह से धर्म की ओर उन्मुख दिखाई दिए.
अब सबकुछ करके मैं मुख्य मार्ग पर आ चुका था. यहां से मुझे बस लेकर शाकुम्भरी देवी के मंदिर जाना था. आगे की यात्रा का ब्लॉग आप अगले ब्लॉग में पढ़ेंगे. यूट्यूब वीडियो में आप उसे देख सकते हैं.
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