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Ladakh Travel Blog :अनूप देव सिंह – मेरी लद्दाख यात्रा मैं घूमने का शौक रखता हूं और मेरा ये शौक किसी जुनून से कम भी नहीं. मैं केदारनाथ घाटी से आगे वासु की ताल की यात्रा अकेले कर चुका हूं. बदरी विशाल से आगे की चढ़ाई खुद की है.
हिमालय के नजदीक जाकर उसे छू चुका हूं, समंदर की लहरों का उफान देख चुका हूं और इन यात्राओं में सैंकड़ों नए दोस्त भी बना चुका हूं. इसके आलावा भी मैने कई सफर किए हैं. पहाड़ी हूं इसलिए कुदरत का साथ मुझे ज्यादा ही भाता है. हां, शादी के बाद इस घुमक्कड़ी में मैंने एक नियम और जोड़ लिया है. मैं हर साल 2 यात्राएं अपनी पत्नी के साथ करता हूं और दो यात्राएं अपने बचपन के दोस्तों के साथ… दोनों ही चीजों के लिए मैं 3-3 महीने का बैलेंस बनाकर चलता हूं.
2017 की गर्मियों में एक ऐसी ही यात्रा मैंने लद्दाख ( Ladakh Travel Blog ) की की. मेरे इस सफर में मेरे साथ राहुल और अभिषेक थे. हम तीनों बचपन के दोस्त हैं. लद्दाख और कश्मीर देश के बाकी पहाड़ी क्षेत्रों की यात्रा से अलग नजर आते हैं. इस सफर से पहले मैंने लद्दाख को फिल्म ‘3 इडियट्स’ में देखा था. या हूं कहे कि देखा तो कही जगह लेकिन छाप इस फिल्म से ही बनी. मेरे मन में लद्दाख को लेकर छवि बनी थी वह इस जगह की शांति ही थी. इसकी शांति और खामोश झीलें मानो यात्रा से पहले ही मेरी दोस्त बन चुकी थीं. मैं इन दोस्तों को छूने को बेताब था. मैं मिलकर इनसे बात कर लेना चाहता था. उनकी पहचान को खुद से जोड़ लेना चाहता था.
हां, यहां यह भी बता दूं कि मैं अपनी हर यात्रा से पहले इसके लिए पूरी तैयारी करता हूं. लद्दाख यात्रा ( Ladakh Travel Blog ) के लिए भी मेरी तैयारी पुख्ता थी. हमारे इस सफर की साथी थी मारुति सुजुकी की ब्रीजा कार… हम 3 दोस्त इसी कार को लेकर दिल्ली से अगस्त की रात में निकले थे. यात्रा से पहले मैंने इसके लिए पूरी तैयारी भी की थी. मैंने खुद के लिए और अपने दोस्तों के लिए हाई एटिट्यूड पर होने वाली सिकनेस से बचने के लिए दवाइयां रखी थीं. डायमॉक्स की 10 टैबलेट्स मैं दिल्ली से लेकर चला था. ऊंचाई वाली क्षेत्रों पर ऑक्सिजन की कमी से हैडेक और उलटी का खतरा रहता है. ऐसी स्थिति के लिए ये दवा कारगर रहती है. लद्दाख जैसी जगहों पर ऑक्सिजन की कमी से जरा सी चढ़ाई पर ही लोग थकने लगते हैं.
लद्दाख ( Ladakh Travel Blog ) का सफर हमारा दिल्ली से शुरू हुआ और मनाली होते हुए लेह में पूरा हुआ. हमने रास्ते में अपने मनमुताबिक जगहों पर ठहराव लिया. चूंकि हम तीनों दोस्त ही ड्राइविंग अच्छी करते हैं इसलिए हम बारी बारी से स्टेयरिंग थामते. हमने फोटोग्राफी भी खूब की. मेरे दोनों दोस्त शानदार ट्रैकर्स हैं. वे बचपन से ही घुमंतू मिजाज के रहे हैं. इस ट्रिप में भी उनके इन अनुभव का फायदा मुझे मिला. ट्रिप में एक पल ऐसा भी आया जब हमारा मन नॉन वेज खाने का हुआ. दिल्ली में अक्सर ही मैं फैमिली या दोस्तों के साथ नजीर की बिरयानी खाने चल लेता हूं. किसी भी रेस्टोबार में अफगानी चिकेन मेरी पहली पसंद रहता है इसलिए लेह में दो दिन से चिकन न खा पाने की वजह से हम परेशान थे. हम चिकन के लिए हम कई किलोमीटर तक भटकते रहे. हमारी तलाश यहां की मेन मार्केट में पूरी हुई. यहां एक चिकेन शॉप दिखाई देते ही हमारे लिए जैसा मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई.
मैंने और राहुल ने चिकन शॉप से चिकन की भूख मिटाई. अभिषेक नॉन वेज नहीं खाता है इसलिए उसने वेज खाना ही पास की एक दुकान से खाया. पेट पूजा के बाद हम थोड़ा राहत में थे कि अब हमारे पास सिर्फ घूमने का चैलेंज ही है. हम खाकर निकले ही थे कि सबसे बड़ी मुसीबत ने हमें जकड़ लिया. मैं और राहुल दोनों को ही उल्टियां होनी शुरू हो गई. मुझे पेट में भी दर्द हुआ. हालांकि राहुल की हालात मुझसे ज्यादा खराब हो गई थी. उसे 4-5 दस्त हो गए. रास्ते में ही हम कई जगह रुके. राहुल गाड़ी में पीछे जाकर लेट गया और दर्द से कराहने लगा. मैं किसी तरह से खुद को संभालने में लगा था. मेरी कोशिश थी कि अपने बाकी दोस्तों को परेशान न होने दूं. इसपर भी, राहुल और मेरी परेशानी बढ़ती ही जा रही थी.
यहां एक पल ऐसा आया जब ट्रिप और हेल्थ में से हमें किसी एक को चूज करना था. हमने तय किया कि ट्रिप बीच में छोड़कर वापस जाएंगे. हमने फैसला किया कि रास्ते में किसी डॉक्टर से दवा लेंगे. हम लद्दाख ( Ladakh Travel Blog ) से दिल्ली के लिए निकल पड़े. खट्टी मीठी यादें मन में थी लेकिन सेहत का दुरुस्त होना सबसे जरूरी था. अब मेरी भी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. राहुल की हालत बेहोशी जैसी हो गई थी. वह दर्द से परेशान होकर बेसुध हो चुका था. मैं भी कसकर पेट को पकड़े आगे स्टेयरिंग सीट के बगल वाली सीट पर था. अभिषेक के हाथ में गाड़ी की कमान थी.
हम लद्दाख से बाहर आए ही थे कि एक जगह सरचू में हमने मदद के लिए गाड़ी रोकी. यहां आईटीबीपी का एक छोटा सा कैंप है. आईटीबीपी यहीं से लद्दाख में अपनी यूनिट को रसद और बाकी सामग्री भेजती है. ये जगह हिमाचल और जम्मू-कश्मीर के बॉर्डर पर है. जिस तरह सियाचिन में जवानों की तैनाती से पहले कुछ वक्त उन्हें नीचे बेस कैंप में गुजारना होता है, उसी तरह लद्दाख में तैनाती से पहले देश के अलग अलग क्षेत्र के जवान तरचू में कुछ दिन रहते है ताकि वे लद्दाख के मौसम के हिसाब से खुद को ढाल सकें. यहां पर जवानों का मेडिकल होता है, साथ में उनके ऑक्सीजन लेवल का भी पता लगाया जाता है.
यहीं पर हमें आईटीबीपी की एक मेडिकल पिकेट दिखाई दी. हम दौड़े दौड़े अंदर दाखिल हुए. अंदर एक आईटीबीपी टीम का डॉक्टर मौजूद था. इस डॉक्टर की कदकाठी किसी भी फिल्मी हीरो को आसानी से मात दे रही थी. डॉक्टर से हमने तुरंत अपनी समस्या बताई. डॉक्टर ने मुझे और राहुल को इंजेक्शन दिया. ये एक खास इंजेक्शन था जो सेना अपने मिशन में इस्तेमाल करती है या उसकी टीमें लोगों को इमर्जेंसी सेवा देने में. इंजेक्शन लगने के कुछ ही मिनटों बाद, ये लगभग 5 मिनट ही था, मैं और राहुल एकदम तंदरुस्त हो चुके थे. हमारे दर्द को जैसे कोई जड़ीबूटी मिल गई थी और हम फिर से हंसने खेलने लगे थे.
जब आपका स्वास्थ्य सही होता है तो आत्मविश्वास भी सातवें आसमान पर पहुंच जाता है. हमें हमारा वही कॉन्फिडेंस मिल चुका था जिसे हम लद्दाख में खो चुके थे. आईटीबीपी का वो डॉक्टर हमारे लिए किसी भगवान से कम नहीं था. मैंने अपनी जेब से 400 रुपये निकालकर उसे ऑफर किया. दिल्ली में आप किसी भी डॉक्टर के पास जाएं तो जरा सी कंसलटेशन पर ही वो आपसे इतनी ही फीस लेता है. यही सोचकर मैंने ऐसा किया. आईटीबीपी डॉक्टर ने सहर्ष ही उसे लेने से इनकार कर दिया. मैंने फिर अनुरोध किया. डॉक्टर से कहा नहीं, इसकी कोई फीस है ही नहीं. मैंने फिर निवेदन किया. इसपर डॉक्टर ने वहीं पास में रखे एक बॉक्स की तरफ इशारा किया और कहा कि अगर आप कुछ देना ही चाहते हैं तो ये पैसे उस बॉक्स में डाल सकते हैं. इन पैसों से हम आसपास के गांवों में लोगों को शिक्षा-स्वास्थ्य की सुविधा मुहैया कराते हैं.
डॉक्टर की ये बातें सुनकर मेरा सीना फुल गया. मैंने उसे अपनी अंतर्आत्मा से सैल्यूट किया और पैसों को उसी बॉक्स में डाल दिया.
डॉक्टर ने इसके बाद हमें एक और बात बताई. उन्होंने हमसे सबसे पहले पूछा कि लद्दाख में क्या खाया था? हमने कहा कि चिकन. हमने ये भी कहा कि चिकन न खाने वाले दोस्त की तबीयत ट्रिप में एकदम सही रही. आईटीबीपी के डॉक्टर ने कहा कि लद्दाख में जो चिकन जाता है वो हिमाचल से पहुंचता है. इसमें कई दिन लगते हैं और इस वजह से चिकन पुराना हो जाता है. इसलिए हम यहीं नहीं बल्कि किसी भी पहाड़ी यात्रा पर चिकन खाने से बचें. डॉक्टर की ये सलाह भी हमें बेहद काम की लगी. डॉक्टर से एक अच्छी मुलाकात के बाद हमारा सफर वापस दिल्ली की ओर चल पड़ा था.
लद्दाख-लेह की यात्रा में जो एक चीज और मैंने महसूस की वो ये कि लद्दाख-लेह में किसी भी पर्यटक को होटल रूम लेने से बचना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि एक दो लद्दाख का मजा सफर करते रहने में है और दूसरा यहां के होटल बेहद महंगे हैं. किसी के भी लिए होम स्टे यहां बेस्ट ऑप्शन है. पर्यटक लद्दाख आराम करने तो जाते नहीं हैं. लद्दाख में जो जगहें घूमने लायक है वो 5-6 घंटे की यात्रा पर हैं, जिसके लिए हमें सुबह साढ़े 5 या 6 बजे निकल जाना होता है. ऐसे में अगर आपको सिर्फ सोना ही है तो इसके लिए महंगे होटल्स से अच्छा होम स्टे रहता है. शिमला या देश के किसी और जगह जहां लोग रिसॉर्ट के लिए भारी भरकर पैसे खर्च करते है, लद्दाख उससे बिल्कुल अलग है.
(लेखर मूलतः उत्तराखंड से हैं और दिल्ली में खेल पत्रकार हैं)
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