साभारः बिक्रम सिंह, युवा पत्रकार
Delhi to Gaya Tour : हमेशा की तरह इस बार भी होली में घर नहीं जा सका. मलाल तो था, मगर मज़बूरी थी. ख़ैर, इस बार चुनाव के कारण रामनवमी में घर जाना भी असंभव लग रहा था. रामनवमी ऐसा मौका होता है जब हम अपने समाज और संस्कुति से जुड़ते हैं. गांव के बाहर रह रहे लोग आते हैं. सबसे मिलने का आनंद ही कुछ और होता है. हम सब साथ में चैती गाते हैं और ख़ूब आनंद लेते हैं.
शुक्रवार की रात को 1 बजे ऑफिस से घर आते ही अजीब सी बेचैनी होने लगी. गांव को मिस करने लगा, वहां की याद आने लगी. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं?
1 बजे अपने दोस्त को फोन करता हूं कि यार 1 दिन वीकऑफ़ एक्सचेंज़ करेगा, मुझे घर जाना है. दोस्त का जवाब आया- हां, चले जाइए, हम संभाल लेंगे.
हमारे पास न तो ट्रेन की टिकट है और न ही बस की. अब करे तो करे क्या? घर में मौजूद छोटे भाई प्रियरंजन से भी सहमति ली, उसने भी कहा- जोश इज़ वेरी हाई सर! चल चलिए, अच्छा लगेगा.
प्रियंरंजन की बातों से कॉन्फिडेंस बढ़ गया. रात के 1:30 बजे हम दोनों तैयार हो गए. मैंने भगवान की पूजा की और सफ़ल यात्रा के लिए आशीर्वाद मांगा.
मोबाइल जैसे-तैसे चार्ज हुआ, ब्लूटूथ स्पीकर को भी साथ में ले लिया. एक बैग में रख लिया और हम दोनों तैयार हो गए. घर से बाहर निकलने से पहले माइंडमैपिंग कर ली. थोड़ा मैप देख लिया कि कहां रुकना है और कहां टिकना है ताकि हम बिना परेशान हुए घर पहुंच जाएं.
2 बजे बुलेट स्टार्ट होती है… एक एडवेंचर के लिए हमदोनों तैयार थे. हमें पता था कि घरवालों को बताने से वे मना कर देंगे. इसलिए हमने कुछ ख़ास दोस्तों को बताया. ग्रेटर नोएडा से परी चौक..परी चौक से यमुना एक्सप्रेसवे और वहां से 2 घंटे के अंदर आगरा. जी हां… हम 4:13 बजे आगरा पहुंच चुके थे. उस समय चारों तरफ़ अंधेरा था. कोई दुकान भी नहीं खुली थी. फिर हम वहां रुके नहीं, फिरोज़ाबाद चले आएं. फ़िरोज़ाबाद 5 बजे पहुंच गए. फैक्टरी और धुएं के कारण मेरा चेहरा काला हो गया था. ऐसा लग रहा था कि मैं कोएले की खान से निकल रहा हूं. फिरोज़ाबाद में हमने चाय पी और पानी पिया. वहां आधा घंटा आराम करने के बाद हम आगे बढ़ निकले.
गाड़ी थोड़ी आगे ही बढ़ी थी कि प्रियरंजन की आवाज़ आई. प्रिय ने कहा-भैया, हमको दीजिए चलाने!
मैंने जवाब में कहा- ठीक है.
अब कमान प्रियरंजन के हाथों में. प्रियरंजन सावधानी से बुलेट चला रहे थे. अब हमारा अगला ठिकाना कानपुर था. कानपुर हम 10 बजे से पहले पहुंच जाना चाहते थे. कानपुर मतलब आधी यात्रा.
कानपुर देहात पहुंचने के बाद हमें लगा कि एक ब्रेक ले लेना चाहिए. हम वहीं पास के एक ढाबा में रुक गए. वहां हमने चाय पी, खाना खाया और कोल्ड ड्रिंक पी. वहां मोटर लगा हुआ था. मैंने पास की ही दुकान से शैंपू लिया और बुलेट को साफ़ कर दिया. फिर मोटर चलाकर बाइक को धोया और साफ़ किया. बुलेटवा हमारी चकचकाने लगी.
बहुत मज़ा आ रहा था. जैसे-जैसे घर नज़दीक आ रहा था, हमारी एक्साइटमेंट बहुत बढ़ रही थी. यूपी की सड़कें बहुत अच्छी लगीं. सड़क पर ज्यादा भीड़ नहीं थी, तो हमें बुलेट चलाने में मज़ा आ रहा था. इसी बीच ब्लूटूथ स्पीकर चालू कर दिया और भोजपुरी गाने सुनने लगा. बहुत अच्छा लग रहा था. हम पवन सिंह और प्रभाकर के गाने सुनने लगे. सफ़र के दौरान ज़रूर सुनिएगा. मज़ा आएगा.
कानपुर देहात के बाद हमारा अगला टार्गेट इलाहाबाद सॉरी प्रयागराज पहुंचना था. धीरे-धीरे गर्मी बढ़ने लगी और घर पहुंचने की बेचैनी भी. हम थके नहीं थे, मगर बुलेट पर बैठने में थोड़ी दिक्कत हो रही थी. हम वहां से फिर बढ़ने लगे. प्रयागराज पहुंचने को हम बहुत उतावले हो रहे थे, क्योंकि वहां से बनारस नज़दीक था और बनारस से मेरा घर.
हम सावधानी से चल रहे थे. खाली सड़क पर बुलेट की स्पीड बढ़ रही थी और गाड़ी आस-पास होते ही स्पीड कम हो जाती थी. इसी बीच हम रास्ते चलते लोगों से देश का मिज़ाज जानने की कोशिश भी कर रहे थे. इस बार ‘राष्ट्रवाद’ हावी है. जनता गठबंधन से भी नाराज़ है. जनता का कहना है कि गठबंधन में कांग्रेस का साथ क्यों नहीं पसंद है. यूपी पीएम देता है और इस बार भी वही पीएम देगा. जनता से बातचीत के आधार पर कह सकता हूं कि यूपी में जातिवाद नहीं राष्ट्रवाद हावी है.
प्रयागराज से 70 किमी पहले हम रुके. वहां हमने खीरा खाया और पानी भी पिया. आम के पेड़ के नीचे गमछा बिछा के लेट भी गए. बहुत मज्जा आ रिया था. हां, थोड़ी थकावट आनी शुरु हो गई थी. मगर इतनी भी नहीं थी कि हमें बुरा लगे.
वहां करीब आधा घंटा रुकने के बाद हम फिर प्रयागराज की तरफ़ चल पड़े. इतना चले, इतना चले कि बनारस पहुंच गए. शहर में घुसने से पहले हमने सोचा कि कहीं कुछ खा लेते हैं. हम फिर एक झोपड़ीनुमा दुकान में गए. वहां चौकी था, जहां मैं लेट गया. दुकान एक महिला की थी. वो समोसा बना रही थी. हम समोसा बनने का इंतज़ार करते रहे. आधे घंट बाद समोसे बने, हमने छक के खाए. मैं 6 समोसे खाए और प्रियरंजन ने 4 समोसे खाए. दोनों टाइट हो गए थे. करीब 3 बजे रहे थे. वहां से मेरा घर सिर्फ 350 किमी दूर था. मतलब हमने 850 किमी का सफ़र तय कर लिया था.
पंक्चरवाले के पास मोटा ट्यूब नहीं थी, उसने काम चलाऊ ट्यूब ही लगा दिया. 1 घंटा वहां लग गया. अब घर वालों को हमारे बारे में पता चल गया.
8 बजे से हमारी यात्रा की शुरुआत हुई. हम आगे बढ़ने लगे और रात भी होने लगी. हमारी आंखें लाल हो गई थीं, सीट पर बैठने का मन नहीं कर रहा था, मगर एक ज़िद्द थी कि हमें हर हाल में 10 बजे तक घर पहुंचना है.
रास्ता ट्रक और बस से भरा पड़ा था. बाइक होने के कारण हम सबसे आगे निकल रहे थे. 9 बज गए थे और घर का रास्ता 247 किमी और बता रहा था. भइया और भार्या दोनों कह रहे थे कि कहीं रुक जाओ गांव आकर क्या करोगे रात में. हम सबसे यही कह रहे थे, ट्रस्ट मी, हम अच्छे से आ जाएंगे.
अब मेरा जोश लो हो रहा था. प्रियरंजन को नींद आ रही थी. मैं स्पीड भी चला सकता था, मगर दूसरा ट्यूब था तो रिस्क नहीं ले सकता था. 60-70 की स्पीड थी. अगर यही स्पीड से चलता तो 1-2 बजे रात में पहुंचता.
हम सासाराम पहुंच गए. अब चिंता इस बात की थी कि घर कैसे पहुंचा जाए. यहां से 156 किमी की दूरी थी. जिसमें 140 किमी नक्सल प्रभावित क्षेत्र था. हम डेहरी ऑन सॉन पहुंचे. एक समय लगा कि दीदी के पास चला जाऊं, फिर लगा कि ये तो अपना एरिया है. रात के 10 बज रहे थे और रास्ता अकेले तय करना था. डेहरी से औरंगाबाद पहुंच गए, औरंगाबाद से मदनपुर और मदनपुर से शॉर्ट कट रास्ता लिया और रफीगंज रेलवे स्टेशन पहुंचा.
तीन चीज़ से डर रहा था. नक्सलियों से, बाइक ख़राब होने से और प्रियरंजन की तबीयत ख़राब होने से. उसी समय प्रियरंजन का मोबाइल स्वीच ऑफ़ हो गया और मेरा दिमाग भी ऑफ हो गया. अब लगा कि भगवान हमसे परीक्षा ले रहे हैं. हम और प्रियंरंजन दोनों इस परीक्षा को देने के लिए तैयार हो गए. रास्ते में मिलने वाले सभी लोगों ने घर जाने से मना किया. मैंने सोचा कि ये मेरा इलाका है और मैंने कभी किसी कुछ बिगाड़ा नहीं है तो मेरा कोई क्यों कुछ बिगाड़ेगा?
रफ़ीगंज से गोह का रास्ता तय करना था. रास्ते में 60-70 लोग बाइक सहिए एकसाथ खड़े मिले. उनके हाथों में बैट-लाठी जैसी चीज़ थी. हम रुके नहीं आगे बढ़ते गए. समय और किमी कम हो ने लगा और हमारा उत्साह भी. बमुश्किल गोह पहुंचा. यहां से हमें और 35 किमी दूर अपने घर जाना था. फिर हमदोनों ने भगवान राम को याद किया और बढ़ा दिए बुलेट लोहानीपुर की ओर. दोनों घर पहुंचना चाहते थे. मम्मी, पुष्पा और भइया की याद आ रही थी. एक हिम्मत थी कि गांव के लोगों को पता है कि हम बाइक से आ रहे हैं.
गोह से कोंच और कोंच से टिकारी और टिकारी से रेवई और रेवई से लोहानीपुर. समय 1 बज रहा था. हम बाइक लेकर कार्यक्रम स्थल गए जहां कार्यक्रम हो रहा था. गांव पहुंचते ही थकान ख़त्म, गले मिलना, हंसी-ठिठोली करना शुरु हो गया.
कार्यक्रम में लोगों को पता चला कि मैं दिल्ली बुलेट से आ रहा हूं तो सभी दंग रह गए. हमारी ज़िद्द थी कि हम अपने गांव के साथियों से मिले. पिछले 5 सालों से गांव में मेहनत कर रहा हूं. इस बार तो हमारा ऐतिहासिक कार्यक्रम था तो इस कैसे छोड़ देता. हम वहां से घर चले गए. वहां से 2 बजे नहा-धोकर तैयार हो गए और फिर रामनवमी के रंग में रम गए.
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