Brahmagiri journey: महाराष्ट्र में नासिक एक बेहद सुंदर जिला है. दिल्ली, वाया गाजियाबाद और नोएडा में अपनी जिंदगी के 27 साल बिता चुका हूं इसलिए इस शांत जगह मेरा मन कुछ ज्यादा ही रमता है. यहां पीक ऑवर्स में भी कभी जाम नहीं लगता, अफरातफरी नजर नहीं आती और लाइफ क्लच-ब्रेक से कहीं आगे नजर आती है. लेकिन अगस्त के आखिरी दिन से शुरू होकर सितंबर के पहले हफ्ते में खत्म हुई इस बार की नासिक यात्रा मुझे जिंदगी के उस अनुभव के पास ले गई जिसे मैं कभी भूल नहीं सकूंगा. ये सफर था, ब्रह्मगिरी पर्वत श्रृंखला का… जिसे मैंने अपनी पत्नी, बेटी, जीजा, बहन, दो भांजियों और एक मराठी परिवार महेश साखरे, उनकी पत्नी और सुपुत्री के साथ पूरा किया.
3 सितंबर 2017 को महेश भैया की गाड़ी में सवार होकर हम सभी त्रयम्बकेश्वर के लिए निकले थे. गाड़ी में जगह न होने की वजह से मैं और मेरे जीजा स्कूटी पर निकले. हम गाड़ी से थोड़ा आगे थे. नासिक शहर से आगे बढ़ते ही मैंने बड़े बड़े अंगूरों के बाग पर नजर गड़ा ली. इनमें कई जगह तो रिजॉर्ट भी बने थे. रिमझिम बारिश ने कई बार हमारे सफर को फुहारों से भर दिया था. रास्ते में मैं वीडियो और फोटो क्लिक करते हुए जा रहा था. जीजा स्कूटी चला रहे थे. मैंने उनसे कई बार कहा कि वडापाव खाते हैं. लेकिन हमें कोई जगह मिल नहीं पा रही थी. आखिर में एक दुकान पर हमें वडापाव दिखा. हमने फटाफट स्कूटी साइड लगाकर ऑर्डर दे दिया. हम खाने में व्यस्त थे कि महेश भैया की गाड़ी हमसे आगे निकल गई.
वो लोग स्वामी समर्थ आश्रम पहुंच चुके थे. वहां पहुंचकर उन्होंने हमें फोन किया. हम स्वामी समर्थ आश्रम से 2 किलोमीटर ही पहले थे. हमने फटाफट वडापाव फिनिश किया और स्वामी समर्थ आश्रम पहुंच गए. मुझे शॉपिंग मॉल या आर्टिफिशल ब्यूटी से हमेशा से परहेज रहा है. यहां जाकर मुझे न सिर्फ शांति का अनुभव हुआ बल्कि दूर तक हरे हरे खास के मैदान भी दिखाई दिए. खास खा रही गायों को देखकर मेरी बिटिया खूब खुश हो जाती है. हमने आश्रम में कुछ पल बिताए, शांति के वातावरण को महसूस किया और फिर नीचे उतर आए.
हमारी गाड़ी अब जहां आकर रुकी वहां से ब्रह्मगिरी के सफर की शुरुआत होती है. मानते हैं कि यहीं से गोदावरी का उद्गम स्थल है. इस श्रृंखला की चोटी पर दो मंदिर हैं, जिनका बेहद पौराणिक महत्व है. इसमें से एक मंदिर भगवान शंकर की जटा का भी है. हालांकि मैं इन सब बातों से अनभिज्ञ था. पहली बार मुझे ये सिर्फ एक ट्रैक रूट लगा जिसे हमें चढ़कर पार भर करना था. लेकिन मैं यहीं गलत था.
हमने पर्वत श्रृंखला की चढ़ाई शुरू की. ये जंगल था. हालांकि सीढ़ियां देखकर अनुभव हुआ कि वन विभाग और स्थानीय प्रशासन ने यहां व्यवस्था पर काफी ध्यान दिया था. हम चढ़े लेकिन कंधे पर भारी बैग और गोद में बच्ची को उठाकर चढ़ने से मैं थोड़ा थकावट महसूस करने लगा. हम सभी का यही हाल था. हालांकि बाकी तीन बच्चे धड़ाधड़ चढ़े जा रहे थे. यहां रास्ते के अगल-बगल कुछ स्थानीय ग्रामीण दुकानें चलाते हैं. यहां नींबू पानी, शिकंजी, नमकीन, खीरे इत्यादि बिकते भी हैं, हां, ऊंचाई पर माल ढोना पड़ता है तो कीमतें कुछ ज्यादा होती हैं. हमने रुककर खीरा खाया जिससे उमस की वजह से बह जाने वाले पानी की पूर्ति होती रहे.
हमने शुरुआत में कई जगह तस्वीरें खिंचवाई और मैं खुद को भी कैमरा ऑन करने से रोक नहीं पा रहा था. कई बार तो बारिश के बीच भी मैं कैमरे से तस्वीरें क्लिक करता जा रहा था. लगभग 2-3 किलोमीटर के सफर के बाद हमने चाय पी. इससे थोड़ा पहले ही दाहिने हाथ पर एक प्राचीन भवन हमने देखा था. मेरी भांजी ने तुरंत मुझसे पूछा, मामा ये शिवाजी का किला है, मैं हंस दिया और जवाब दिया कि पता नहीं… लेकिन हां, वो भवन आज भी बेहद खूबसूरत लग रहा था इसलिए मैं कैमरा लेकर उसकी तरफ बढ़ा. लेकिन तभी ग्रुप के बाकी साथियों ने आवाज लगाकर मुझे बुला लिया.
जंगल के इस रास्ते में जगह जगह विभिन्न विभिन्न प्रकार के दुर्लभ पक्षियों के साइनबोर्ड लगे थे, जिन्हें देखकर बच्चे उत्साहित हो रहे थे. हालांकि, अभी हमारा असली सफर बाकी था. और ये सफर शुरू हुआ इस चाय के पीने के बाद. यहां से महेश भैया ने दूर एक मंदिरनुमा दरवाजा दिखाया और इशारा किया कि हमें वहीं जाना है. ये देखकर ही हम में से कईयों की हिम्मत पस्त हो गई. वो मंदिरनुमा दरवाजा मानो आसमान की तरह एकदम सिर के ऊपर था. यहां से बारिश की बूंदें कुछ तेज हो चली थीं. सामने मुझे खड़ी चढ़ाई दिखी इसलिए मैंने कैमरे को एक पॉलिथिन में लपेटकर कैमरा बैग में डाल दिया और ऊपर से पॉलिथिन से भी कवर कर दिया. ये बैग अब मैंने प्रीति (मेरी वाइफ) को दे दिया और पीहू (बेटी) को गोद में कसके पकड़ लिया.
अब तक जिन सीढ़ियों पर हम चढ़कर यहां तक आए थे उससे उलट अब डेढ़ डेढ़ फिट की ऊंचाई वाली सीढ़ियां शुरू हो चुकी थीं. बड़ी बात ये थी कि बारिश ने यहां पर फिसलन पैदा कर दी थी. और तो और एक तरफ खाई एक तरफ पहाड़ वाली स्थिति में हम सभी थोड़ा सहमे सहमे आगे बढ़ रहे थे. यहां हमारा सहारा बनीं वो मजबूत रेलिंग्स जिन्हें पकड़कर हम एक के पीछे एक चल रहे थे. इस हाल में मुझे ‘एवरेस्ट’ फिल्म याद आई जिसे मैंने अपने दोस्त सचिन के साथ देखा था. मैंने एक बात गांठ बांध ली थी कि परिस्थिति कैसी भी हो मुझे विचलित नहीं होना है वर्ना हालात और बिगड़ जाएंगे.
मैं अपने ग्रुप में अब सबसे आगे थे. मेरे हाथ में मेरी बेटी थी जिसकी उम्र महज 1 साल 8 महीने की थी और मुझसे 3-4 सीढ़ी नीचे मेरी पत्नी थी. उसके बाद हमारे बाकी साथी. हम और 3 किमी का सफर तय कर उस लाल दरवाजे (मंदिरनुमा) के पास पहुंच चुके थे. लेकिन तभी बंदरों के झुंड से हमारा सामना हुआ. पहाड़ी से वापस लौट रहे लोग हमसे कहते जा रहे थे कि जो सामान है दे दो वो वापस कर देंगे, मैं ये सुन ही रहा था कि एक बंदर मेरी पॉकेट की तरफ झपटा. बच्चों ने कुछ वेफर्स खाए थे. बारिश देखकर मैंने वेफर्स के पैकेट में अपना मोबाइल डाल लिया था. लेकिन बंदरों को लगा कि उसमें कुछ खाने का सामान है.
मैंने तुरंत वेफर्स वाली पॉलीथिन जेब से निकाली और उल्टा कर फोन बाहर किया. मेरा फोन सीढ़ियों पर पानी में गिर गया. मैंने 2 सेकेंड के अंतर से अपना फोन उठा लिया. यहां गनीमत ये रही कि बंदरों की नजर वेफर्स के पैकेट पर ही गई मेरे फोन पर नहीं. वर्ना एक सेकेंड में मेरा फोन खाई में कहीं गुम हो चुका होता. मैंने फोन को जेब में डाल लिया और बारिश होते रहने के बावजूद उसे किसी भी तरह की पॉलिथिन में कवर नहीं करने का फैसला किया.
हालांकि मेरे ठीक पीछे चल रही प्रीति बंदरों के निशाने पर आ गई. पॉलिथिन में लिपटे कैमरे को बंदर कोई खाने की वस्तु समझ बैठे और प्रीति के बालों पर हमला करने लगे. यहां मैं सिर्फ खड़ा होकर सब देखे जा रहा था. मैंने प्रीति से कहा कि कैमरे की पॉलिथिन फाड़कर निकाल दो. प्रीति भी घबराए बिना बंदरों से शांत भाव से निपट रही थी. लेकिन तभी एक नर बंदर उसकी तरफ झपटा. उसने पहले तो कैमरे के बैग में झांका और फिर जब प्रीति ने उसे भगाने की चेष्टा की तो उसने उसके बाएं हाथ पर बलपूर्वक काट दिया.
इसके बाद बंदर ने सुनिश्चित किया कि कैमरे के बैग में कुछ खाने की चीजें तो नहीं हैं… और फिर वहां से वो सभी बंदर चले गए. ये सब मेरी आंखों के सामने हुआ था, मैं बेटी को लिए ये सब देख रहा था. अभी तक हमारे ग्रुप के किसी भी सदस्य को नहीं पता था कि प्रीति को बंदर ने काट लिया है. हम आगे बढ़ चुके थे. हमने नीचे आ रहे लोगों से पूछा- क्या ऊपर बंदर हैं, और अभी हम कितना दूर है? बाकी लोगों ने कहा कि ऊपर बंदर काफी हैं और अभी हमे 4 किमी की चढ़ाई और करनी है. ये सुनकर ही मैं थोड़ा घबराया लेकिन फिर हिम्मत की, बेटी को कसकर थामा एक हाथ से रेलिंग पकड़ी और चढ़ाई के लिए आगे बढ़ गए.
यहां से आगे एक रास्ता ऐसा आया, जैसा आपने दिल्ली के हुमायूं मकबरे में देखा होगा. मैदानी हिस्से से गुंबद की तरफ बढ़ने के लिए मकबरे में आपने एकदम खड़ी सीढ़ियां चढ़ीं होंगी लेकिन ये सीढ़ियां उससे भी खतरनाक थीं और बारिश होने की वजह से और भी घातक नजर आ रही थीं. यहां चढ़ते वक्त सिर पर जो पानी की बूंदे गिर रही थीं वो पत्थरों से रिसकर आ रही थीं और मोटी थीं इसलिए सिर पर भी चोट कर रही थीं. इस मुश्किल भरे रास्ते को पार करने के बाद हम मंदिरनुमा गुफा में प्रवेश कर चुके थे. इस दरवाजे से ठीक पहले चट्टान पर हनुमान जी एक आकृति उभारी गई थी. पास ही में एक कमरानुमा मंदिर भी था.
मैंने आजतक ऐसी कोई यात्रा नहीं की थी, वैष्णों देवी के मंदिर भी नहीं गया हूं. हां लेकिन तमाम खबरों में ‘स्वर्ग का रास्ता’ या ‘रहस्यलोक’ जैसी कहानियां देखता-पढ़ता आया हूं. सबसे पहले, पांडवों की स्वर्ग यात्रा का भी पता था. ये यात्रा हमें कहां ले गई ये आप अगले लेख में पढेंगे लेकिन रास्ते का संकट किसी ‘रहस्यलोक’ से कम नहीं था.
(इस लेख का दूसरा अंश आप ट्रैवल जुनून के अगले आर्टिकल में पढ़ेंगे…)
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