Hajj Yatra : साऊदी अरब में 2 साल बाद हज यात्रा की शुरुआत हो गई है. कहते हैं हर मुसलमान को अपनी जिंदगी में एक बाद हज की यात्रा करनी चाहिए. हज की यात्रा को बहुत ही पुण्य का काम माना जाता है. आइए जानते हैं कि हज यात्रा कब से शुरू हुई? (When Hajj Yatra started) हज यात्रा का महत्व क्या है? (Hajj Yatra Importance) साथ ही, हज यात्रा को कैसे करते हैं (How to do Hajj Yatra) और हज यात्रा का इतिहास (Hajj Yatra History) भी…
हर साल लाखों लोग सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में मुस्लिम यहां पहुंचते हैं. 40 दिन की हज यात्रा में कई परंपराओं को पूरा किया जाता है. इस यात्रा के दौरान 10 दिन मदीने में रहना होता है और फिर लोग मक्का जाते हैं. उसके बाद कुछ अलग-अलग जगह पर जाते हैं.लेकिन, जो लोग सिर्फ हज के लिए जाते हैं, तो 8,9,10 तारीख को होने वाली मुख्य हज यात्रा में हिस्सा लेते हैं.
हज यात्रा इस्लामी चंद्र कैलेंडर के बारहवें और अंतिम महीने धू अल-हिज्जा के 8वें दिन पड़ता है. इस साल हज 7 जुलाई, गुरुवार शाम से शुरू हुई और 12 जुलाई मंगलवार को समाप्त होगी.
यह इस्लाम के पांच मूल स्तंभ में से एक है, साथ ही यह एक धार्मिक कर्तव्य है जिसे अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार पूरा करना हर उस मुस्लिम चाहे स्त्री हो या पुरुष का कर्तव्य है जो सक्षम शरीर होने के साथ साथ इसका खर्च भी उठा पाने में समर्थ हो.
हाजी, हज के लिए धू अल-हिज्जाह के सातवें दिन मक्का पहुंचते हैं. “धू अल-हिज्जाह” का शाब्दिक अर्थ है “तीर्थयात्रा का” या “तीर्थ का महीना”… हज यात्रा के पहले चरण में हाजियों को एहराम बांधना होता है. एहराम ऐसा लिबास होता है जिसे सिलाई बगैर तैयार किया गया होता है. इस कपड़े को शरीर पर लपेटना होता है. हज के दौरान दौरान सफेद कपड़ा पहनना अनिवार्य है. हां, महिलाएं अपनी पसंद का कोई भी सादा कपड़ा पहन सकती है लेकिन उन्हें भी हिजाब के नियम मानने होते हैं
हज के पहले दिन हाजी तवाफ (परिक्रमा) को करते हैं. तवाफ के वक्त हाजी 7 बार पवित्र काबा के चक्कर काटते हैं. ऐसा माना जाता है कि यह प्रक्रिया उन्हें अल्लाह के और करीब लाती है. सफा और मरवा नाम की दो पहाड़ियों (Safa and Marwa Hills) के बीच 7 बार चक्कर लगाए जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि पैगंबर इब्राहिम की पत्नी हाजिरा अपने बेटे इस्माइल के लिए पानी तलाश रही थीं और इस कोशिश में वे 7 बार सफा और मरवा की पहाड़ियों के बीच चली थीं..
अब हाजी मक्का से 8 किलोमीटर दूर मीना शहर में जुटते हैं. यहां रात में वे नमाज आदा करते हैं.
हज के दूसरे दिन हाजी माउंट अराफात (Mount Arafat) पहुंचते हैं. माउंट अराफात पर वे अपने पापों को माफ करने की दुआ करते हैं. इसके बाद हाजी मुजदलिफा के मैदानी इलाकों (Muzdalifah level Area) में जुटते हैं. यहां पर खुले में हाजी रात बिताते हैं.
हज के तीसरे दिन हाजी जमारात पर पत्थर फेंकने (Jamarat Stone Pelting) के लिए दोबारा मीना लौट आते हैं. जमारात एक तीन पत्थरों का एक ढांचा है, जिसे शैतान का प्रतीक माना जाता है. दुनिया के दूसरे मुस्लिमों के लिए यह ईद का पहला दिन होता है. इसके बाद हाजी अपने बालों को हटा देते हैं.
अब बारी आती है हाजियों द्वारा मक्का में दोबारा तवाफ और सई (Tawaf and Saee) करने की इसके बाद वे जमानत लौटते हैं.
मक्का से निकलने से पहले हर हाजी को हज यात्रा पूरी करने के लिए आखिरी बार तवाफ करनी पड़ती है.
चार हज़ार साल पहले मक्का का मैदान पूरी तरह से विरान था. मुसलमानों का मानना है कि पैगंबर अब्राहम ने अपनी पत्नी हाजिरा और बेटे इस्माइल को फलस्तीन से अरब लाने का निर्देश दिया ताकि उनकी पहली पत्नी सारा की ईर्ष्या से उन्हें बचाया जा सके.
अल्लाह ने पैगंबर अब्राहम से उन्हें अपनी किस्मत पर छोड़ देने के लिए कहा. उन्हें खाने की कुछ चीजें और थोड़ा पानी दिया गया. कुछ दिनों में ही ये सामान खत्म हो गया.
हाजिरा और इस्माइल भूख और प्यास से बेहाल हो गए. मायूस हाजिरा सफा और मारवा पहाड़ी से मदद की आश लेकर नीचे उतरीं. भूख और थकान से टूटकर हाजिरा नीचे गिर गईं और उन्होंने संकट से मुक्ति के लिए अल्लाह से गुहार लगाई. इस्माइल ने जमीन पर पैर पटका तो धरती के भीतर से पानी का एक सोता फूट पड़ा और दोनों की जान बच गई.
हाजिरा ने पानी से बचाया गया और खाने के सामान के बदले पानी का व्यापार भी शुरू कर दिया.जब पैगंबर अब्राहम फिलिस्तीन से लौटे तो उन्होंने देखा कि उनका परिवार एक अच्छा जीवन जी रहा है और वो पूरी तरह से हैरान रह गए.
पैगंबर अब्राहम को अल्लाह ने एक तीर्थस्थान बनाकर समर्पित करने को कहा. अब्राहम और इस्माइल ने पत्थर का एक छोटा सा घनाकार निर्माण किया, जिसे काबा कहा जाता है
628 साल में पैगंबर मोहम्मद ने अपने 1400 फॉलोअर्स के साथ एक यात्रा शुरू की.यह इस्लाम की पहली तीर्थयात्रा बनी और इसी यात्रा में अब्राहम की धार्मिक परंपराओं को फिर से स्थापित किया और इस तरह से हज यात्रा शुरु हई.
हज कुल पांच दिनों तक चलता है.
Day- 1: उमरा के बाद हज यात्री पहले दिन सुबह (फज्र) की नमाज पढ़ कर मक्का से 5 किलोमीटर दूर मीना पहुंचते हैं. यहां हाजियों को एहराम पहनना होता है. यह एक खास लिबास होता है, जिसे पहन कर ही हज यात्रा करनी होती है.
लिबास पूरा सफेद होता जो सिला हुआ नहीं होता है. हज यात्रा के दौरान पुरुष सिले हुए कपड़े नहीं पहन सकते. मीना में हाजी पूरा दिन बिताते हैं, और यहां बाकी की चार नमाजें अदा करते हैं.
Day-2 : दूसरे दिन यात्री मीना से लगभग 10 किलोमीटर दूर अराफात की पहाड़ी से पहुंचते हैं. यहां नमाज अदा करते हैं. अराफात की पहाड़ी पर जाना जरूरी है. नहीं तो हज अधूरा माना जाता है. यहां पहुंच जायरीन तिलाबत करते हैं.
अराफात की पहाड़ी को जबाल अल-रहम भी कहा जाता है. पैगंबर हजरत मुहम्मद ने अपना आखिरी प्रवचन इसी पहाड़ी पर दिया था. सूरज ढलने के बाद हाजी अराफात की पहाड़ी व मीना के बीच स्थित मुजदलफा जाते हैं. यहां हाजी आधी रात तक रहते हैं. जायरीन यहां से शैतान को मारने के लिए पत्थर जमा करते चलते हैं. जो शैतान को मारने के लिए होते हैं.
Day-3 : तीसरे दिन को बकरीद होती है. इस दिन कुर्बानी होती है, लेकिन इससे पहले यात्री मीना जाकर शैतान को तीन बार पत्थर मरते हैं. ये पत्थर जमराहे उकवा, जमराहे वुस्ता व जमराहे उला जगहों पर बने तीन अलग-अलग स्तंभों पर मारे जाते हैं. इन्हीं तीनों जगहों पर हजरत इब्राहीम ने शैतान को तब कंकर मारे थे, जब उसने उन्हें बेटे की कुर्बानी देने जाते समय रोकने की कोशिश की थी.
इसीलिए तीनों जगहों पर स्तंभ बनाए गए हैं. और हाजी इन खंभों को शैतान का प्रतीक मान पत्थर बरसाते हैं. इन दिन हाजी केवल सबसे बड़े स्तंभ को ही पत्थर मारते हैं. पत्थर मारने की रस्म अगले दिनों में दो बार और करनी होती है.
तीसरे दिन कुर्बानी के बाद हज यात्री अपने बाल पूरी तरह कटवाते हैं, जबकि महिलाएं भी बाल बिलकुल छोटे करा देती हैं. इन रस्मों के बाद मक्का जाकर हज यात्री काबा के सात बार चक्कर लगाते हैं.
Day- 4: चौथे दिन एक बार फिर पत्थर मारने की रस्म होती है. चौथे दिन पूरे समय यही रस्म होती है. हाजी एक बार फिर मीना पहुंच जमराहे उकवा, जमराहे वुस्ता व जमराहे उला जगहों पर बने स्तंभों को पत्थर मारते हैं. ये स्तंभ शैतान का प्रतीक माने जाते हैं. पत्थर सात-सात बार मारे मारे जाते हैं.
Day- 5: अगले यानी पांचवे दिन भी ये रस्म होती है फिर दिन ढलने से पहले जायरीन (हाजी) मक्का के लिए रवाना हो जाते हैं. आखिरी दिन हाजी फिर से तवाफ़ की रस्म निभाते हैं. और इसी के साथ हज यात्रा पूरी हो जाती है. तवाफ़ यानी काबे की सात चक्कर (परिक्रमा) लगाई जाती है. इस रस्म के पूरा होते ही हज यात्रा पूरी मान ली जाती है.
इस्लाम धर्म में आब-ए-जमजम की बेहद अहमियत है. आब-ए-जमजम का चश्मा या कुआं इस्लाम में बेहद पवित्र माना जाता है. यह कुआं मक्का की पवित्र मस्जिद अल-हरम से करीब 66 फीट दूरी पर है. इस्लाम में जमजम का चश्मा यानी कुएं को हर मुसलमान के लिए अल्लाह के तोहफे के रूप में माना जाता है. इस कुएं की उम्र 4 हजार साल पुरानी बताई जाती है.
उमरा और हज करने वाले हाजी इसके पानी को पहले अपने साथ लेकर जाते थे. अपने अपने घरों पर लाकर वे इसे रिश्तेदारों और पड़ोसियों को बांटते थे. जमजम के इस कुएं को हजारों साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है लेकिन इसका पानी न कभी सूखा और न कभी ये कुआं खराब हुआ.
पहले हर हज यात्री को 10 लीटर आब-ए-जमजम लाने की परमिशन थी. बाद में, सऊदी सरकार ने इसे घटाकर 5 लीटर तक सीमित कर दिया. अब इसके लाने पर ही रोक लगा दी गई है.
हज करने वाले मुस्लिम अपने नाम के पहले हाजी का इस्तेमाल करते हैं. यह समाज में बताने के लिए होता है कि वह इस्लाम की सबसे पवित्र तीर्थयात्रा को कर चुके हैं. वहीं, काजी का मतलब ऐसे समझा जा सकता है कि जैसे हिंदू धर्म में पंडित होते हैं, वैसे ही इस्लाम में धर्म की जानकारी रखने वाले को काजी कहा जाता है.
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