Sufi Dargah in Uttar Pradesh | Sufi Saint Dargah in Uttar Pradesh | Uttar Pradesh Dargah – हाजी हाफिज सैयद वारिस अली शाह, हाजी वारिस अली शाह या सरकार वारिस पाक- 1817-1905) देवा, बाराबंकी में एक सूफी संत रहे हैं. उन्होंने सूफीवाद में वारसी पंथ को बनाया. उन्होंने पश्चिम की विस्तृत यात्रा भी की. ऐसा कहा जाता है कि यूपी में देवता जन्मे हैं. अयोध्या में राम, मथुरा में श्रीकृष्ण… हर धर्म की संस्कृति यहां की धरती में रची बसी हुई है. होली पर काशी-मथुरा में गुलाल उड़ते हैं, ईद पर लखनऊ से लेकर मेरठ तक दुआओं का दौर चलता है. काशी, मथुरा और ब्रज अपनी खास होली के लिए जाने जाते हैं. इन जगहों के अलावा यूपी में एक दरगाह (Sufi Dargah) भी है जहां होली के दिन खूब जमकर होली खेली जाती है. उत्तर प्रदेश में बाराबंकी के सूफी फकीर हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर हर साल जमकर होली खेली जाती है.
हाजी वारिस अली शाह की दरगाह ( Sufi Dargah in Uttar Pradesh ) लखनऊ से फैजाबाद वाले मुख्य हाईवे पर है. यह जगह यूं तो अब लखनऊ शहर की जद में आ चुका है. यहां से देवा की ओर एक रास्ता जाता है. यह स्थान इस सूफी की दरगाह ( Sufi Dargah in Uttar Pradesh ) के लिए मशहूर है. हाजी वारिश अली शाह की दरगाह पर खेली जाने वाली होली की सबसे खास बात यह होती है कि जो इनका संदेश था कि ‘जो रब है वही राम’ की पूरी झलक इस होली में साफ-साफ दिखाई देती है.
देश भर से हिंदू, मुसलमान, सिख यहां आकर एक साथ हाजी वारिस अली शाह की दरगाह ( Sufi Dargah in Uttar Pradesh ) पर होली खेलते हैं और एकता का संदेश देते हैं. इस होली में हिंदू-हिंदू नहीं, मुसलमान मुसलमान नहीं, सिख सिख नहीं बल्कि सब इंसान होकर होली खेलते हैं. रंग, गुलाल और फूलों से विभिन्न धर्मों द्वारा खेली जाने वाली होली देखने में ही अद्भुत नजर आती है. यह परंपरा सैकड़ों सालों से चली आ रही है. यहां होली खेलने की परंपरा आज के विघटनकारी समाज के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करती है.
भगवान कृष्ण का अवतार!
हाजी वारिस अली शाह की मजार ( Sufi Dargah in Uttar Pradesh ) का निर्माण उनके हिंदू दोस्त राजा पंचम सिंह ने कराया था और इसके निर्माण काल से ही यह स्थान हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देता आ रहा है. यहां आने वाले जायरीनो में जितने मुस्लिम होते हैं, उससे कहीं ज्यादा हिंदू यहां उमड़ते हैं. कुछ हिंदू भक्त इन्हें भगवान कृष्ण का अवतार भी मानते हैं और अपने घरों एवं गाड़ियों पर श्री कृष्ण वारिस सरकार के वाक्य को भी अंकित कराते हैं. कुछ भी हो मगर धर्म की टूटती सीमाए यहां की होली में देखना एक ताजा हवा के झोंके के समान है. देवा शरीफ में खेली जाने वाली होली यह अपने आप में अनूठी है.
चांचड़ यात्रा का है खास महत्व
होली पर यहां पहले एक जुलूस निकलता है, जिसे चांचड़ यात्रा कहते हैं. यह यात्रा पूरे कस्बे से होकर गुजरती है. इसके बाद मजार पर 15 क्विंटल रंग अबीर गुलाल को उड़ाया जाता है. हर जाति, धर्म, संप्रदाय के लोग प्रेम और सौहार्द के रंग में रंग जाते हैं. मथुरा की होली की तो देश-विदेश में खूब चर्चा होती है. अगली होली क्यों न इस दरगाह ( Sufi Dargah in Uttar Pradesh ) पर आकर खेली जाए?
पैगंबर मोहम्मद के खानदान से है रिश्ता
यहां कब से होली खेली जाती है, यह सही-सही किसी को मालूम तो नहीं लेकिन इसमें शिरकत करने मुल्क के अलग अलग हिस्सों से अलग अलग धर्मों के लोग आते हैं. हाजी वारिस अली शाह का रिश्ता पैगम्बर मोहम्मद साहब के खानदान से माना जाता है.
हर तरफ उड़ते हैं रंग
सफेद रंग की दरगाह के आंगन में हर तरफ रंग उड़ते हैं. लाल, पीले, हरे, गुलाबी और सूफी फकीर इन रंगों में रंग जाते हैं. यहां होली सिर्फ सूखे रंगों से खेली जाती है. दरगाह के चारों तरफ गुलाल उड़ते हैं. दरगाह के एक सूफी फकीर गनी शाह वारसी ने एक समाचार पत्र को बताया कि सरकार ने फरमान दिया था कि मोहब्बत में सभी धर्म एक हैं. उन्हीं सरकार ने ही यहां होली खेलने की रवायत शुरू की थी. सरकार खुद होली खेलते थे और उनके सैकड़ों मुरीद जिनके मजहब अलग थे, जिनकी जुबानें जुदा, वे उनके साथ यहां होली खेलने आते थे.
रंग का कैसा धर्म?
रंग का कोई धर्म नहीं होता. सदियों से रंग लोगों को अपनी तरफ खींचते आए हैं. इतिहास में वाजिद अली शाह, जिल्लेइलाही अकबर और जहांगीर के भी होली खेलने की बात सामने आई है. नवाब आसफुद्दौला दसवीं मुहर्रम को जब ताजिया दफन कर लखनऊ में तालकटोरा की कर्बला से वापस आ रहे थे, इत्तिफाक से उसी दिन होली थी. चौक पर लोग होली खेल रहे थे. लोग रंग लेकर बादशाह की तरफ भी बढ़े तो उन्होंने मुहर्रम के दिन भी इस त्योहार के रंग खुद पर डलवा लिए ताकि किसी को गलतफहमी न हो जाए कि मुस्लिम होने की वजह से वह इसे नहीं खेल रहे हैं. वाजिद अली शाह खुद होली खेला करते थे और त्योहार के दिन महल को पूरी भव्यता के साथ सजाया जाता था
मुगलों की होली के रंग
मुगलों के वक्त की तमाम पेंटिंग्स अभी भी सही सलामत हैं. ऐसी ही कुछ पेंटिंग्स में मुगल बादशाह होली खेलते हुए दिखाए गए हैं. जिल्लेइलाही अकबर के महारानी जोधाबाई संग होली खेलना का जिक्र मिलता है. बताया जाता है कि जहांगीर भी नूरजहां संग होली खेला करते थे. इसे ‘ईद-ए-गुलाबी’ कहा जाता था. यह होली गुलाल और गुलाब के साथ खेली जाती थी. वहीं बहादुर शाह जफर का कलमा तो आज भी लोगों की जुबान पर है- ‘क्यों मोपे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी।’
सूफी परंपरा का बड़ा दिल
दरअसल, सूफी परंपरा ही ऐसी है कि उसमें चाहे तो सारा जहां समा जाए. बुल्ले शाह ने लिखा- ‘होरी खेलूंगी कह-कह बिस्मिल्लाह, बूंद पड़ी इनल्लाह.’ इसे तमाम शास्त्रीय गायकों ने भी वक्त वक्त पर गाया है. सूफी शाह नियाज का कलमा आबिदा परवीन ने गया है जिनकी होली में पैगंबर मोहम्मद साहब के दामाद अली और उनके नातियों हसन और हुसैन का भी जिक्र है. उन्होंने लिखा- ‘होली होय रही है अहमद जियो के द्वार, हजरात अली का रंग बनो है, हसन-हुसैन खिलद।’
खुसरो के अल्फाज तो अभी भी गाए जाते हैं- ‘खेलूंगी होली ख्वाजा घर आये’ या फिर ‘तोरा रंग मन भायो मोइउद्दीन.’ इन्हीं में से एक रंग हाजी वारिस अली शाह का भी है, जिसमें खुद को रंगने दूर दूर से लोग यहां दरगाह पर आते हैं.
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