Dargah in India – भारत एक विविधता से भरा देश है. भारत में 20 शानदार दरगाह हैं जहां हर मुस्लिम भाईयों की उनके जीवन में एक बार जाने की तमन्ना जरूर रहती है. वहीं कुछ दरगाह ऐसे भी हैं जिनमें महिलाओं और गैर-मुस्लिमों को प्रार्थना क्षेत्र के अंदर जाने की अनुमति नहीं है. आपको हम इस लेख के जरिए बताएंगे भारत में 20 अद्भुत दरगाहों ( Dargah in India ) के बारे में, विस्तार से.
हाजी अली की Dargah मुंबई के वर्ली तट के निकट स्थित एक छोटे से टापू पर मौजूद एक मस्जिद और दरगाह है. इसे सैय्यद पीर हाजी अली शाह बुखारी की याद में साल 1431 में बनाया गया था. यह दरगाह मुस्लिम और हिन्दू समुदायों के लिए विशेष धार्मिक महत्व रखती है. यह मुंबई का महत्वपूर्ण धार्मिक और पर्यटन स्थल भी है. हाजी अली ट्रस्ट के अनुसार हाजी अली उज़्बेकिस्तान के बुखारा प्रान्त से सारी दुनिया का भ्रमण करते हुए भारत पहुंचे थे.
यह Dargah सड़क से लगभग 400 मीटर की दूरी पर एक छोटे से टापू पर बनाई गई है. हाजी अली की दरगाह पर जाने के लिए मुख्य सड़क से एक पुल बना हुआ है. इस पुल की ऊंचाई काफी कम है और इसके दोनों ओर समुद्र है. दरगाह तक सिर्फ शाम होने से पहले ही जा सकते हैं. बाकी समय में यह पुल पानी के नीचे डूबा रहता है. दरगाह टापू के 4500 वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैली हुई है. दरगाह और मस्जिद की बाहरी दीवारें सफेद रंग से रंगी हैं. इस दरगाह की पहचान है 85 फीट ऊंची मीनार.
हाजी अली दरगाहः 400 सालों से समंदर में बुलंद हैं ये नायाब इमारत
मस्जिद के अंदर पीर हाजी अली की मजार है जिसे लाल एवं हरी चादर से सजाया गया है. मजार के चारों तरफ चांदी के डंडों से बना एक दायरा है. मुख्य कक्ष में संगमरमर से बने कई स्तम्भ हैं जिनके ऊपर रंगीन कांच पर कलाकारी की गई है और अल्लाह के 99 नाम भी उकेरे गए हैं. ऐसा कहा जाता है कि हाजी अली बहुत समृद्ध परिवार से थे लेकिन उन्होंने मक्का की यात्रा के दौरान अपनी पूरी दौलत नेक कामों के लिए दान कर दी थी. उसी यात्रा के दौरान उनका देहांत हो गया था. ऐसी मान्यता है कि कि उनका शरीर एक ताबूत में था और वह समुद्र में बहते हुए वापस मुंबई आ गया. यहीं उनकी दरगाह बनवाई गई.
इसे दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गुंबज माना जाता है. इसका व्यास 124 फीट है. गुंबज चार खंभों पर टिका है. बुर्ज की सीढि़यों के सहारे इसकी बालकनी में पहुंच सकते हैं. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि जरा-सी फुसफुसाहट भी दूसरे छोर पर साफ-साफ सुनी जा सकती है. गुंबज की यही खासियत पर्यटकों को बेहद धीमा बोलने को मजबूर कर देती है.
गोल गुम्बज वास्तुशिल्प की एक अनूठी मिसाल है. मुहम्मद आदिलशाह के मकबरे का निर्माण वर्ष 1656 में दाबुल के वास्तुकार याक़ूत द्वारा किया गया था. इस मकबरे के निर्माण में किसी पिलर (स्तंभ) का प्रयोग नहीं हुआ है.
हर साल हजारों पर्यटक इससे आकर्षित होते हैं. इसमें सात मंजिला अष्टकोणीय खंभे हैं, जो रेलिंग के ठीक नीचे बड़े ब्रैकेट वाले कॉर्निस के साथ हैं. इस संरचना में एक आश्चर्यजनक ध्वनि चमत्कार देखने को मिलता है. इसकी गैलरी में आवाज गुंजती है, और आलम ये है कि एक फुसफुसाहट जैसी धीमी आवाज भी गैलरी में कुल 11 बार गूंज सकती है. गुंबद का गोल गुंबद नाम ’गोम गुम्मत’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है गोलाकार गुंबद.
बीबी का मकबरा, जिसे देखकर आपको लगेगा कि आप आगरा का ताजमहल देख रहे हैं. बीबी के मकबरे को लोग महाराष्ट्र का ताजमहल भी कहते हैं. यह मकबरा महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित है. शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज के लिए आगरा में ताजमहल बनवाया था, जिसे देखा देखी औरंगजेब के बेटे और शाहजहां के पोते आजम शाह ने ताजमहल से प्रेरित होकर अपनी मां दिलरास बानो बेगम की याद में बीबी का मकबरा बनवाया. इसका निर्माण 1651 से 1661 ईसवीं के बीच करवाया गया था.
इसे देश का दूसरा ताजमहल भी कहते हैं. इसे बनवाने का खर्च तब 700,000 रुपए आया था, जबकि ताजमहल बनवाने का खर्च उस समय 3.20 करोड़ रुपए आया था. यही वजह है कि बीबी का मकबरा को ‘गरीबों का ताजमहल’ भी कहते हैं. आगरा के ताजमहल को शुद्ध सफेद संगमरमर से बनवाया गया था, वहीं बीबी का मकबरा का गुम्बद संगमरमर से बनवाया गया था. मकबरा का बाकी हिस्सा प्लास्टर से तैयार किया गया है, ताकि वह दिखने में संगमरमर जैसा हो.
ताज महल’ के बाद आगरा की मशहूर जगहों में से एक है जामा मस्जिद, दोनों को ही शाहजहां ने बनवाया था. कहा जाता है कि शाहजहां ने ताज को अपनी बेगम मुमताज की याद में और जामा मस्जिद को अपनी बेटी जहांआरा के लिए बनवया था. जामा मस्जिद लाल पत्थर से बनी हुई है और इसे संगमरम से बनाया गया है. ताजमहल के बाद आगरा में यह भी एक देखने लायक स्थल है.
ऐसा कहा जाता है कि इस मस्जिद में एक साथ 10 हजार लोग नमाज पढ़ सकते हैं इसके परिसर में महान सूफी संत शेख सलीम चिश्ती का मकबरा भी है.
चिश्ती संप्रदाय के लोकप्रिय सूफी संत शेख निजामउद्दीन औलिया का दरगाह दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के नजदीक है. यह दिल्ली स्थित निजामुद्दीन के पश्चिम में स्थित है और हर सप्ताह यहां हजारों तीर्थयात्री आते हैं. निजामुद्दीन औलिया का मकबरा या दरगाह 1325 में उनकी मृत्यु के बाद बनवाया गया था.
हालांकि इस समय मौजूद दरगाह का काफी नवीनीकरण किया गया है. इस दरगाह पर सिर्फ मुसलमान ही नहीं, बल्कि हिंदू, ईसाई और अन्य धर्मों के लोग भी आते हैं. निजामुद्दीन औलिया के वंशज दरगाह की पूरी देखभाल करते हैं.यदि आप शाम को दरगाह पर जाते हैं, तो आप भक्तों को संगमरमर के जड़े हुए मंडप में कव्वालियां गाते हुए पाएंगे.
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इन कव्वालियों को महान सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो के सम्मान में गाया जाता है. निजामुद्दीन की दरगाह परिसर के अंदर महिला श्रद्धालुओं को जाने की अनुमति नहीं है. लेकिन महिलाएं संगमरमर की जाली से उनकी कब्र को देख सकती हैं. स्थानीय लोगों का मानना है कि संगमरमर की जाली पर धागा बांधने से सभी मन्नतें पूरी होती हैं. इसलिए निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर आपको धागा लेकर जाना चाहिए.
हालांकि मणोरी को एक लोकप्रिय सप्ताहांत गंतव्य के रूप में जाना जाता है जो मुंबई शहर के करीब स्थित है, एक शांत शांत सूफी दरगाह भी यहां एक जगह पाती है। तीर्थस्थल आमतौर पर स्थानीय लोगों द्वारा दौरा किया जाता है जो उस स्थान के बारे में जानते हैं और इसलिए, यह भारी भीड़ द्वारा अक्सर नहीं होता है, बल्कि यात्रियों की तलाश में होता है। दरगाह की दीवारों से पारम्परिक सूफी संगीत की सूक्ष्म ध्वनियाँ सुनी जा सकती हैं, जो मणोरी में एक शाम को और भी शांत और शांत बनाती हैं।
अजमेर शरीफ दरगाह दरगाह शरीफ,ख्वाजा गरीब नवाज दरगाह अजमेर, अजमेर दरगाह जैसे नामों से जाना जाता है. यह राजस्थान का सबसे लोकप्रिय और महत्वपूर्ण मुस्लिम तीर्थ स्थान है. मक्का मदीना की तरह यह भी मुस्लिम धर्म के लिए इश्वर का दरवाज़ा है. ख्वाजा गरीब नवाज़ दरगाह अजमेर, हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का मकबरा है. जो भारत में इस्लाम के संस्थापक थे.
वह दुनिया में इस्लाम के महान उपदेशक के रूप में थे. वह अपनी महान शिक्षाओं और शांति के प्रचारक रूप में जाने जाते हैं. यह सूफी संत परसिया से आये थे. अजमेर में सभी के दिलों को जीतने के बाद सन 1236 में उनका निधन हो गया. यह सूफी संत ख्वाजा गरीब के नाम से भी जाने जाते थे. दरगाह की खास बात यह है कि यहां सजदा करने सिर्फ मुसलमान ही नहीं आते बल्कि हिंदू, सिख व जैन सहित अन्य धर्मो के लोग भी यहां आते हैं.
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अकबर का मकबरा आगरा के पास सिकंदरा में स्थित है, जिसका निर्माण 1605 और 1618 के बीच किया गया था. बता दें कि यह मकबरा महान मुगल सम्राट अकबर की कब्र है. यह मकबरा बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर से बना हुआ है और सम्राट अकबर ने अपनी मृत्यु के समय तक इस मकबरे की देखरेख का काम किया था.
अकबर की मृत्यु के बाद उनके बेटे सलीम ने इस मकबरे का निर्माण का काम पूरा किया था. अकबर के मकबरे की सबसे खास बात यह है कि इसका मुख दुनिया के सारे प्रसिद्ध मुस्लिम राजाओं की अन्य कब्रों के विपरीत है. मक्का के मस्जिद के बजाय उगते सूरज की ओर है.
अकबर के मकबरे की वास्तुकला मुगल शैली का एक प्रतीक है. मुख्य रूप से इस संरचना की वास्तुकला हिंदू राजपुताना डिजाइन और गोथिक मुगल शैली का मिश्रण है. इसमें इस युग के अन्य स्मारकों की तरह समरुपता की मानक विशेषता है. अकबर का मकबरा एक दीवार से घिरा हुआ है जो पूरी संपत्ति को घेरती है. इसमें चार द्वार हैं. इनमें दक्षिणी द्वार चार संगमरमर छतरी वाले शीर्ष मीनारों के साथ सबसे बड़ा है जो ताजमहल के समान है. यह द्वार प्रवेश का सामान्य बिंदु है.
बता दें कि यह मकबरा पिरामिड आकार का है, जिसमें चार मंजिल और एक संगमरमर का मंडप है जिसमें झूठी कब्र स्थित है. असली कब्र तहखाने में स्थित है. ग्राउंड फ्लोर दक्षिणी ओर के केंद्र को छोड़कर चारों तरफ से पैदल मार्ग से घिरा हुआ है, जो मुख्य द्वार से जाने वाला रास्ता है.
इस इमारत को ‘ताजमहल’ के डिजाइन को प्रेरित करने वाली इमारत कहा गया, इब्राहिम रोजा,सुल्तान इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय और उनकी रानी का मकबरा है. संरचना फारसी मुस्लिम वास्तुकला का एक चमत्कार है और चट्टान के एक स्लैब पर बनाया गया है. इस प्राचीन स्मारक की सुंदर वास्तुकला इसे राज्य में अधिक लोकप्रिय और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण आकर्षणों में से एक बनाती है.
यदि आप कुछ मांगना चाहते हैं तो यहां रखे मालिक-ए-मैदान नामक तोप को छूकर मांग सकते हैं. ऐसा माना जाता है कि यहां मांगी हुई मुरादें पूरी होती हैं. इस तोप का वजन 55 टन और लंबाई 14 फीट है. इब्राहिम रोजाः इस मकबरे का निर्माण आदिल शाह ने कराया. यह निर्माण ताजमहल और दुनिया के सात अजूबों से प्रेरित था. इसमें नक्काशी का काम देखने लायक है.
गुम्बज ,यह टीपू सुल्तान का मकबरा है. यह मैसूर शहर से लगभग 23 कीमी की दूरी पर श्रीरंगपट्टनम में स्थित है. जिसमें टीपू सुल्तान, उनके पिता हैदर अली और उनकी मां फकर-उन-निसा की कब्रें हैं. टीपू सुल्तान ने गुंबज का निर्माण 1784 ई में अपने वीर पिता को श्रद्धांजलि देने के लिए करवाया था. उन्हें भी 1799 ई। में यहां दफनाया गया था. गुम्बज के बगल में एक खूबसूरत मस्जिद है, मस्जिद-ए-अक्सा, जिसे टीपू सुल्तान ने भी बनवाया था.
गुम्बज के प्रवेश द्वार सोने और चांदी से बनाए गए थे. हालांकि, ब्रिटिश शासन के दौरान ये लूटे गए थे और अब लंदन के अल्बर्ट म्यूजियम में विस्थापित कर दिए गए हैं. गुम्बज के प्रवेश द्वार के बगल में बेली का मकबरा है. आपको गुम्बज के पास कुछ स्नैक स्टॉल और स्मारिका की दुकानें मिलेंगी. ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ ये कब्रें शानदार वास्तुकला का भी दावा करती हैं. वास्तुकला, जो गोलकुंडा कब्रों के समान दिखती.
दरगाह-ए-हकीमी, मध्य प्रदेश राज्य में दाउदी बोहरा मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र स्थानों में से एक है. यह बुरहानपुर में गढ़ी चौक से लगभग 3 किमी दूर स्थित है. इसे सफेद संगमरमर में बनाया गया है जो इसे मुगल वास्तुकला का बेहद शानदार उदाहरण है. संपूर्ण आसपास का क्षेत्र इतना सुव्यवस्थित है कि स्थानीय लोग इसे ‘छोटा अमिरका’ कहते हैं.
गुवाहाटी से लगभग 24 किमी की दूरी पर स्थित, हाजो तीन अलग-अलग धर्मों – हिंदुओं, बौद्धों और मुसलमानों के लिए एक प्राचीन तीर्थस्थल है. पोवा’ शब्द का अर्थ है 1/4th और इसलिए, पोवा मक्का का अर्थ है मक्का की पवित्रता का कुछ होना.
इस्लाम के एक अग्रणी पीर गियासुद्दीन औलिया का मकबरा यहां स्थित है. इसका निर्माण मुगल सम्राट शाहजहां के शासन के दौरान 1657 में मीर लुतुफ़ुल्लाह-ए-शिराजी द्वारा किया गया था. यह भी माना जाता है कि यहां की मस्जिद की नींव मक्का से लाई गई मिट्टी से रखी गई थी.
पीर बाबा की दरगाह के दर्शन करने सभी धर्मों के अनेक लोग आते हैं. स्थानीय लोग पीर बाबा (पीर बूढ़न अली शाह) को अपना रक्षक मानते हैं और उनका विश्वास है कि जब तक पीर बाबा की नजर उन पर है तब तक उनमें कोई आंच नहीं आ सकती. पौराणिक कथाओं के अनुसार पीर बाबा गुरु गोविन्द सिंह के घनिष्ठ मित्र थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन मात्र दूध पीकर गुजार दिया. वे 500 वर्षों तक जीवित रहे और जम्मू-कश्मीर की जनता उनमें बहुत अधिक श्रद्धा रखती थी. उनकी मृत्यु के पश्चात उन्होंने उन्हें देवता मानकर उनकी दरगाह बना दी. जम्मू के नागरिक विमानपत्तन के पीछे स्थित इस दरगाह पर बृहस्पतिवार को भारी भीड़ उमड़ती है. माना जाता है कि यदि इस स्थान पर कोई फूल और चादर चढ़ाता है तो उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं
पीर इस्माइल की दरगाह, जैसा कि नाम से स्पष्ट है, पीर इस्माइल की याद में बनाया गया था.जो तत्कालीन मुगल शासक औरंगजेब के लिए एक टीचर थे. रीगल प्रवेश द्वार के पास एक बड़ा नुकीला मेहराब है जो एक जटिल शैली में बनाया गया है जिसमें एक दीवार, मोहरा, छत और एक गुंबद है. कब्र में मुगल और पठान वास्तुकला का विषय है.
औरंगजेब में पीर इस्माइल की दरगाह स्थानीय लोगों के बीच लोकप्रिय है और ज्यादातर गुरुवार को भीड़ होती है. इसे देखते समय, महत्व और इतिहास के बारे में अधिक जानने को मिलता है दरगाह परिसर ने पानी के टैंकों और फव्वारों को नष्ट कर दिया है.
ऐसा माना जाता है कि फरीदाबाद एक लोकप्रिय सूफी संत, बाबा फरीद के नाम पर रखा गया था. इस क्षेत्र में विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए पूरे वर्ष बहुत हलचल होती है.
सुल्तान अहमद शाह का मकबरा है. यह अहमदाबाद शहर के संस्थापक थे. इस मकबरे में अहमद शाह के बेटे और पोते की भी कब्रें हैं. केंद्रीय कक्ष में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं है. सड़क के पार उसकी रानियों की कब्र भी है, हालांकि यह अभी सही रूप में नहीं बना हुआ है.
यह एक प्रसिद्ध पवित्र स्थान है जो गरीब शाह को समर्पित है जो लोगों को अच्छे उपदेश दिया करते थे. इस जगह हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग बराबर आते हैं.
पटना से लगभग तीस किलोमीटर दूर खानकाह मनेर में हजरत इब्राहिम खान काकड़ ने छोटी दरगाह में आलीशान मस्जिद बनवाई थी. इसका निर्माण लगभग चार सौ साल पहले हुआ था. इब्राहिम उस वक्त गुजरात के सूबेदार थे और बिहार का उन्हें अतिरिक्त प्रभार दिया गया था. इब्राहिम, हजरत मखदूम शाह दौलत मनेरी के मुरीद भी थे. 1936 में आए भूकम्प में यह ऐतिहासिक मस्जिद क्षतिग्रस्त हो गया था.
बावजूद इसमें ईद की नमाज होती थी. फिलहाल यह मस्जिद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कब्जा में है और इसमें उन लोगों ने ताला लगा दिया है. 1980 के बाद से यहां ईद की नमाज नहीं होती है.
नूरजहां ने अपने पिता के मृत्यु के लगभग 7 वर्ष बाद 1628 ई.एत्माद-उद-दौला मकबरे का निर्माण को पूरा करवाया. यह मकबरा चारबाग प्रणाली के एक बाग के मध्य बना है जो चारों ओर से ऊंची दीवारों से घिरा हुआ खड़ा है. एक उठी हुई बलुआ-पत्थर के चबूतरे पर खड़ा यह मकबरा सफेद संगमरमर का बना हुआ है.
इस स्मारक में एक समांतर चतुभुर्जीय केन्द्रीय कक्ष है .जिसमें वजीर और उनकी बेगम-अस्मत बेगम की कब्र है. इस कक्ष के चारों तरफ छोटे-छोटे सेल हैं जिसमें नूरजहां और उनके पहले पति शेर अफगान से उत्पन्न बेटी-लाडली बेगम और परिवार के अन्य सदस्यों की कब्रे हैं. बलुआ पत्थर की एक सीढ़ा पहली मंजिल पर जाती है, जहां केन्द्रीय कक्ष के ऊपर के मण्डप में एक भव्य आयताकार गुम्बद है. जिसके ऊपर दो कलश हैं. इस भवन के ऊपरी चारों कोनों पर लगभग 40 फीट ऊंची चार गोल मीनारें हैं जिसके ऊपर संगमरमर की छतरियां है.
हिंदू धर्म से जुड़ी एक दरगाह है, जहां भारी संख्या में हिंदू धर्म के लोग दर्शन करने आते हैं
आदिगुरू शंकराचार्य की समाधि केदारनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है. श्री शंकराचार्य एक प्रसिद्ध हिन्दू सन्त थे जिन्होंने अद्वैत वेदान्त के ज्ञान के प्रसार के लिये दूर-दूर तक यात्राएं कीं. ऐसा विश्वास है कि इन्होंने ही केदारनाथ मन्दिर को 8वीं शताब्दी में पुनर्निर्मित किया और चारों मठों की स्थापना की.
लोककथाओं के अनुसार उन्होंने अपने यात्रा की शुरूआत बद्रीनाथ के ज्योतिर्मठ आश्रम से की थी और फिर केदारनाथ के पहाड़ों पर आकर अपना अन्तिम पड़ाव डाला. शंकराचार्य के चार सबसे प्रिय शिष्य उनके साथ चले किन्तु उन्हें वापस जाने के लिये कह कर वे अकेले ही चल पड़े. शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहां वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था.
मात्र 32 वर्ष की उम्र में वह ब्रह्मलोक चले गए. इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिन्दू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए 4 मठों की स्थापना की. 4 मठों के शंकराचार्य ही हिन्दुओं के केंद्रीय आचार्य माने जाते हैं. इन्हीं के अधीन अन्य कई मठ हैं.
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