Beghum Samru Story : बेगम समरू यानी चांदनी चौक की वो तवायफ जो पहले प्रेमिका, पत्नी और फिर सल्तनत की जागीरदार बनी. 48 साल तक हुकूमत चलाई और जीवन के अंतिम दिनों में धर्म बदलकर ईसाई बन गई. बेगम समरू की बहादुरी के किस्से आज भी उत्तर प्रदेश के सरधना में सुनाए जाते हैं. आज का आर्टिकल बेगम समरू पर ही है. आपको बताएंगे इनके बारे में पूरी डिटेल के साथ…
साल 1753 में एक कुलीन परिवार में जन्मी बच्ची का नाम फरज़ाना था. उनके पिता का नाम असद अली खां था और माँ एक कश्मीरी महिला थीं. जब फरज़ाना 10 वर्ष की थी उसी समय उनके पिता की मौत हो गई. घरेलू समस्याओं से परेशान होकर फरजाना की मां उन्हें लेकर दिल्ली चली गईंं और वही अपना गुजर-बसर करने लगीं.लेकिन फरज़ाना की मां भी ज्यादा समय तक उनका साथ नहीं निभा पाई और बचपन में ही उन्हें अकेला छोड़ गई. इतिहासकारों की मानें तो चावड़ी बाजार की मशहूर नर्तकी खानम खां की पालकी जा रही थी और जब उन्होने एक छोटी सी बच्ची को रोते हुए देखा तो उसे अपने साथ ले आई और उसे नाचने-गाने का ट्रेंनिग देने लगीं.
बात है साल 1767 की जब फरजाना दिल्ली के चावड़ी बाज़ार की एक मशहूर तवायफ़ बन चुकी थीं. यहां कई सैनिक मनोरंजन के लिए आया करते थे. इन्हीं में से एक सिपाही था वाल्टर रेनहाल्ड जो मुगलों की ओर से अंग्रेज़ों से लड़ रहा था. वाल्टर ने फरज़ाना के सामने शादी का प्रस्ताव रखा और उसका प्रस्ताव स्वीकार कर वह चांदनी चौक छोड़कर वाल्टर के साथ चली गईं. फरज़ाना का यह सफर उनके जीवन के कुथ ही समय के लिए था. दोंनो लखनऊ, आगरा, भरतपुर होते हुए सरधना (मेरठ) पहुंच गए.
दिल्ली के चांदनी चौक के एक कोठे में पली फरजाना देखते देखते अपने दौर की सबसे ताकतवर महिला बन गई. फरजाना बेहद खूबसूरत थीं. जाबांजी उनमें कूट-कूट कर भरी थी. फरहाना जब एक कोठे में बड़ी हो रही थीं, तब अंग्रेजों का भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा हो चुका था. तब मुगलों ने यूरोप से भाड़े के लड़ाके बुलाए. साल 1760 के उस दशक में किराए के सैनिक अक्सर मनोरंजन के लिए चांदनी चौक के उसी कोठे में आते थे जहां फरजाना की खूबसूरती का सिक्का चलता था. तभी एक दिन फ्रांस की सेना में रह चुका सैनिक वॉल्टर रेनहार्ट वहां पहुंचा. उसकी नजर कोठे पर नाच रही फरजाना पर पड़ी तो वो हमेशा के लिए उसी का हो गया.
फरजाना को वाल्टर का साथ पसंद आया इसलिए वाल्टर जहां-जहां जाया करते थे वह उनके साथ जाया करतीं. वह लड़ाइयों में हिस्सा भी लेने लगी. वाल्टर एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे. वह अलग-अलग जागीदारों की तरफ से लड़ाइयां लड़ा करता था, इस दौरान मुगल बादशाह शाह आलम के कहने पर वाल्टर ने सहारनपुर के जाबिता खां को शिकस्त दी, इससे खुश होकर शाह आलम ने एक बड़ी जागीर वाल्टर को भेंट स्वरूप दिया और वे वहीं बस गए. साल 1778 में फरजाना के जीवन में नया मोड़ आता है जब वाल्टर की मृत्यु हो जाती है. वाल्टर की मृत्यु के बाद फरजाना को शाह आलम और उनके चार हजार सैनिकों की सहमति से सरधना का जागीरदार बना दिया गया और अब फरज़ाना, ‘बेग़म समरू’ के नाम से जानी जाने लगती हैं.
हुकुमत की शुरुआत हुई, एक मर्द की जगह औरत ने ली. एक ऐसी औरत जिनमें दोंनो खूबियां थीं. लड़ने में निडर और बरताव में ऊंची, बेग़म अपने लोगों के प्रति रहम दिल और दुश्मनों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं थीं. उनकी सफलता से घबराकर लोग कहने लगें कि वह जादू-टोना करना जानती हैं। इसके बाद शुरू होता है फरजाना यानी बेग़म समरू का इतिहास. फ़रजाना को सरधना की जागीर का नियंत्रण दे दिया गया था. तीन साल बाद सन् 1781 में फ़रजाना ने आगरा के रोमन कैथोलिक चर्च में ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया. वह अब ‘जोहाना नोबलिस’ के नाम से जानी जाने लगीं. आगे चलकर बेग़म समरू ने बहुत कूटनीतिक ढंग से मुगलों का साथ दिया जिससे आगे आनेवाले समय में उन्हें ज़रूरत पड़ने पर उनका साथ मिले. वह अपने सैनिकों को हर वक्त तैयार रखती थीं कि उन्हें कभी भी युद्ध के मैदान में भेजा जा सकता है.
लड़ाई के मैदान से कूटनीति के अखाड़े तक बेग़म समरू का बोलबाला रहता था और हालात के ख़िलाफ़ होने के बावजूद वह 1837 में अपनी मौत होने तक सरधना की जागीर पर बनी रहीं. साल 1822 में बेगम समरू ने अपने पति की याद में सरधना में मे “रोमन कैथलिक चर्च” का निर्माण करवाया था. उस समय का बना गिरिजाघर आज उत्तर भारत के सबसे विशाल गिरिजाघरों में से एक है. दिलचस्प बात यह है कि बेगम समरू जिस महल में रहा करती थी अब वह एक शिक्षण संस्थान के तौर पर प्रयोग मे लाया जा रहा है। इसके साथ-साथ उन्होंने चांदनी चौक और हरियाणा में भी कुछ महलों का निर्माण करवाया. बेगम समरू उस दौर में कूटनीति की एक अहम मिसाल बनकर उभरीं जिनके बारे में इतिहास में चर्चा बेहद कम की गई.
बेगम समरू ने जनवरी 1836 में आखिरी सांस ली. उनकी मौत के बाद सरधना की बेगम समरू की प्रॉपर्टी ईस्ट इंडिया कंपनी को मिल गई. कहा जाता है बेगम समरू के पास सोने की करीब 5.5 करोड़ मुहरें थीं. यानी वो करोड़ों रुपये की मालकिन थी. बेगम समरू से जोएना बनी फरजाना को सरधना के चर्च में ही दफनाया गया था.
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