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First Opium War : जब चीन के जबड़े से हॉन्ग कॉन्ग को छीन लाए थे अंग्रेज!

First Opium War : 2 जुलाई 2020 को चीन और हॅान्ग कॅान्ग के लिए बहुत बड़ा दिन था। चीन ने नेशनल पीपल्स कांग्रेस की स्थायी समिति ने सभी की सहमती से फलस्वरूप हॉन्ग कॉन्ग के लिए नेशनल सिक्योरिटी लॉ ( Hong Kong security law ) को पारित कर दिया है। आपको बता दें इस नए कानून के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वालों को अधिकतम उम्र कैद की सजा सुनाई जा सकती है। इससे पहले चीन की संसद ने कानून का समर्थन करते हुए चर्चा के लिए इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेज दिया था। नेशनल पीपुल्स कांग्रेस स्टैंडिंग कमेटी के 162 सदस्यों ने कानून पेश किए जाने के महज 15 मिनट के अंदर ही सर्वसम्मति से इसे मंजूरी दे दी. हांगकांग में यह कानून 1 जुलाई से लागू कर दिया गया है।

हॉन्ग कॉन्ग और चीन के इस रिश्ते के उतार चढ़ाव वाली खबर ने हमारा ध्यान डाल दिया है, उस घटना पर जब ब्रिटिश सरकार ने चीन से हॉन्ग कॉन्ग छीनकर उसपर कब्जा ले लिया था. अंग्रेजों ने हॉन्ग कॉन्ग को लीज पर लिया था. 1997 में ब्रिटेन द्वारा हॉन्ग कॉन्ग को सौंपे जाने से पहले चीन ने इस पर सहमति जताई थी कि वह 2047 तक हांगकांग को कुछ स्वतंत्रता और स्वायत्तता बनाए रखने देगा, लेकिन आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून हांगकांग के नागरिकों के लिए उस स्वतंत्रता की अनदेखी करता है।

इतिहास के आइने में

एक वक्त था, जब धरती पर नक्शों की दूसरी पहचान पौधों और वनस्पतियों के नाम पर की जाने लगी थी. वह ऐसा वक्त था जब दो एम्पायर्स, चीन और ब्रिटेन के बीच दो फूलों की वजह से युद्ध छिड़ गया था. ये दो पौधे थे, पॉपी और कैमेलिया…

पॉपी, यानी पेपावेर सोमनीफेरम, जिसे अफीम में प्रोसेस किया जाता था. अठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता था. इस ड्रग को पैदा करने से लेकर इसकी मैन्युफैक्चरिंग भारत में होती थी. 1757 में भारत ग्रेट ब्रिटेन के अधिकार क्षेत्र वाला एक प्रिंसली स्टेट था. इस अफीम की मार्केटिंग पूर्ण रूप से इंग्लैंड अंपायर के संरक्षण में ईस्ट इंडिया कंपनी करती थी.

वहीं, कैमेलिया, यानी Camellia sinensis, जिसकी पहचान चाय के रूप में थी. अंपायर ऑफ चाइना का इसपर संपूर्ण एकाधिकार था. यह एकमात्र देश था, जो चाय उगाने, पत्तियां तोड़ने, प्रोसेस, कुक करने से लेकर मैन्युफैक्चर, होलसेल और उसे एक्सपोर्ट भी करता था. लगभग 200 सालों तक, ईस्ट इंडिया कंपनी चीन को अफीम बेचती रही और बदले में चाय खरीदती रही.

अफीम के बदले चाय के इस कारोबार में वक्त के साथ ब्रिटिश हुकूमत को घाटा होने लगा था. चाय के आयात पर जो टैक्स थे, उससे रेलवे, सड़क और एक उभर रहे औद्योगित राष्ट्र की जरूरतों को फंड किया जाता था. वहीं, दूसरी तरफ अफीम भी अंग्रेजों के लिए बराबर जरूरी था. इसके जरिए भारत के प्रबंधन को मदद मिलती थी. भारत उस वक्त महारानी विक्टोरिया के मुकुट का चमकता हीरा था.

अंग्रेजों को इस बात की उम्मीद थी, कि एक दिन भारत अपने पैरों पर जरूर खड़ा होगा. तीन देशों के बीच चल रहा ये ट्राएंगुलर ट्रेड, वर्ल्ड इकॉनमी के लिए एक तरह का इंजन था. लेकिन इसी बीच चीन की बड़ी आबादी अफीम की गिरफ्त में जाने लगी. इसी वजह से ब्रिटिश हुकूमत और चीन के बीच युद्ध हुआ जिसे ‘प्रथम अफीम युद्ध’ ( First Opium War ) के नाम से भी जाना जाता है.

दरअसल, 1729 में चीन के सम्राट ने अफीम की खरीद फरोख्त पर प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि इसके आदि हो चुके लोग इसके लिए घर का सामान तक बेचने लगे थे. अब चीन ने ब्रिटेन को मजबूर किया कि वो चांदी के बदले में चाय का व्यापार करे. ब्रिटेन के पास कोई और चारा न होने की वजह से उसे ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ा.

1785 के आसपास, इंग्लैंड चीन के कैंटोन ( अब ग्वांगझो Guangzhou ) से 60 लाख पाउंड की चाय हर साल आयात कर रहा था. इसके बदले में ब्रिटेन चीन को चांदी के सिक्के दे रहा था, जिससे खजाना खाली हो रहा था. 1830 के आसपास, ब्रिटेन में चाय की खपत कई गुना बढ़ चुकी थी. मुश्किल हालात का सामना कर रहे ब्रिटेन ने चीन को चाय के बदले अन्य सामान देने के पेशकश की जिसे चीन ने ठुकरा दिया.

उधर, अफीम का कम दाम मिलने की वजह से परेशान हो चुके किसान अब अफीम की स्मगलिंग करने लगे और उसे गैर सरकारी एजेंटों को बेचने लगे. अफीम का उत्पादन घटता देख अंग्रेजों ने गैर सरकारी एजेंटों पर कार्रवाई की, अफीम जब्त कर उन्हें जेल में डाल दिया गया. अफीम के व्यापार को ब्रिटिश सरकार ने अवैध घोषित कर दिया और स्मगलर किसानों-व्यापारियों को जेल में डालना शुरू कर दिया. जबकि वो खुद चाय की खातिर चीन में अफीम के स्मगलिंग में जुटा रहा.

इतिहासकारों का मानना है कि 1836 के आसपास, हर साल 30 हजार अफीम की पेटियां चीन अवैध रूप से जाने लगीं, भारत के पूर्वी इलाके में भारी मात्रा में अफीम हो रही थी, और चीन के कैंटोन शहर की तटीय स्थिति के कारण यहां अंग्रेजों के लिए तस्करी आसान हो गई.

चीन में अफीम की बढ़ती तस्करी को लेकर 1839 में चीन के शासक ने अंग्रेजों और अन्य विदेशी व्यापारियों के खिलाफ कार्रवाई की. अफीम के 1600 एजेंटों को गिरफ्तार कर लिया गया और अंग्रेजों की कई हजार अफीम की पेटियां जब्त कर ली गईं. जब अंग्रेजों की यह पूरी पॉलिसी फेल हो गई तो अपने देश की जरूरत को पूरा करने के लिए इंग्लैंड ने चीन के साथ प्रथम अफीम युद्ध लड़ा.

अगस्त 1842 में एचएमएस कॉर्नवालिस पर नानकिंग के पास चीनियों से अंग्रेज़ों का समझौता हुआ जिसे दुनिया ‘अनइक्वल ट्रीटी’ या ‘गैरबराबरी की संधि’ के नाम से जानती है.

चीन को पांच बंदरगाह विदेश व्यापार के लिए खोलना पड़ा और अफ़ीम के कारोबार से हुए नुकसान और युद्ध के हर्जाने के तौर पर उसने ब्रिटेन को दो करोड़ 10 लाख सिल्वर डॉलर अदा किए.

ब्रिटेन को इस संधि से हॉन्गकॉन्ग पर कब्जा मिला जिसका इस्तेमाल चीन में अफ़ीम का कारोबार बढ़ाने के लिए किया जाना था.

हालांकि, इस संधि का भविष्य कितना साफ था, इसपर कईयों को संदेह था. चीन हार और संधि के बाद खुद को अपमानित महसूस कर रहा था. इस स्थिति को भांप रहे ब्रिटिश राजनेता और व्यापारी इस बात से परेशान थे कि अगर चीनी शासकों ने अफीम की खेती अपने देश में करने की इजाजत दे दी तो पीस एकोर्ड नाकाम हो जाएगा. इसी डर से लंदन में एक विचार जन्म लेने लगा. ये विचार था, चाय का भविष्य सुरक्षित करने का…

अगर चीन अफीम को वैधता दे देता तो ये इकोनॉमिक ट्राएंगल में सुराग पैदा कर सकता था. इंग्लैंड के पास चाय के बदले देने के लिए धन नहीं होता , न ही भारत में युद्धों के लिए वह पैसा जुटा पाता, न ही वो अपने घर, इंग्लैंड में सार्वजनिक कार्य कर सकता था. इसका अर्थ ये था, इंग्लैंड का भविष्य पूरी तरह से चाय के भविष्य पर टिका हुआ था.

अंग्रेज ये भी समझ चुके थे कि भारत का हिमालयी क्षेत्र, चीन जैसी चाय उगाने के लिए मुफीद हो सकता है. हिमालयी क्षेत्र ऊंचे थे, अच्छी मिट्टी वाले थे और बादलों से ढके रहते थे. लेकिन भारत में चाय लाने और उसे पैदा करने के लिए अंग्रेजों को बेहतरीन गुणवत्ता वाले चाय के पौधों की जरूरत थी, हजारों बीजों की जरूरत थी, और चीन की सदियों पुरानी पद्दति को समझने वाले जानकार की जरूरत थी.

इस काम के लिए अंग्रेजों के चाहिए था एक प्लांट हंटर, बागवानी के जानकार, एक चोर और एक जासूस… और अंग्रेजों को ये सब जिस शख्स में मिला, उसका नाम था…. रॉबर्ट फॉर्च्यून

यह है new Hong Kong security law?

चीन के इस नए कानून में देशद्रोह, आतंकवाद, विदेशी दखल और विरोध-प्रदर्शन जैसी गतिविधियों को रोकने का प्रावधान है. इसके अलावा, अब चीनी सुरक्षा एजेंसियां हांगकांग में काम भी कर पाएंगी। मौजूदा व्यवस्था के तहत उन्हें इसकी इजाजत नहीं थी। साथ ही चीन के राष्ट्रगान का अपमान करना भी अपराध के दायरे में आ जाएगा। बीजिंग की यह कवायद एक तरह से हांगकांग के अर्ध-स्वायत्त दर्जे को समाप्त करने के लिए है।

कानून लाने से पहले लगातार हो रहा विरोध

जब चीनी सरकार ने नया कानून लाने की घोषणा की थी, तभी से इसका विरोध हो रहा है. कई मानवाधिकार संगठनों और अंतराष्ट्रीय सरकारों ने भी इस कानून पर आपत्ति जताई है। आलोचकों को डर है कि इस कानून से बीजिंग में नेतृत्व पर सवाल उठाने, प्रदर्शन में शामिल होने और स्थानीय कानून के तहत अपने मौजूदा अधिकारों का उपयोग करने के लिए हांगकांग निवासियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है। हालांकि, चीन का कहना है कि यह कानून बढ़ती हिंसा और आतंकवाद पर लगाम लगाने के लिए आवश्यक है और क्षेत्र के निवासियों को इससे डरने की जरूरत नहीं है.

ब्रिटेन ने 99 साल की लीज पर लिया था हांगकांग

दरअसल, हांगकांग अन्य चीनी शहरों से काफी अलग है। 150 साल के ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन के बाद हांगकांग को 99 साल की लीज पर चीन को सौंप दिया गया। हांगकांग द्वीप पर 1842 से ब्रिटेन का नियंत्रण रहा। जबकि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान का इस पर अपना नियंत्रण था। यह एक व्यस्त व्यापारिक बंदरगाह बन गया और 1950 में विनिर्माण का केंद्र बनने के बाद इसकी अर्थव्यवस्था में बड़ा उछाल आया। चीन में अस्थिरता, गरीबी या उत्पीड़न से भाग रहे लोग इस क्षेत्र की ओर रूख करने लगे।

1984 में हुआ था सौदा

पिछली सदी के आठवें दशक की शुरुआत में जैसे-जैसे 99 साल की लीज की समयसीमा पास आने लगी ब्रिटेन और चीन ने हांगकांग के भविष्य पर बातचीत शुरू कर दी। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने तर्क दिया कि हांगकांग को चीनी शासन को वापस कर दिया जाना चाहिए। दोनों पक्षों ने 1984 में एक सौदा किया कि एक देश, दो प्रणाली के सिद्धांत के तहत हांगकांग को 1997 में चीन को सौंप दिया जाएगा। इसका मतलब यह था कि चीन का हिस्सा होने के बाद भी हांगकांग 50 वर्षों तक विदेशी और रक्षा मामलों को छोड़कर स्वायत्तता का आनंद लेगा।

विवाद की जड़

1997 में जब हांगकांग को चीन के हवाले किया गया था तब बीजिंग ने एक देश-दो व्यवस्था की अवधारणा के तहत कम से कम 2047 तक लोगों की स्वतंत्रता और अपनी कानूनी व्यवस्था को बनाए रखने की गारंटी दी थी। लेकिन 2014 में हांगकांग में 79 दिनों तक चले अंब्रेला मूवमेंट के बाद लोकतंत्र का समर्थन करने वालों पर चीनी सरकार कार्रवाई करने लगी। विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों को जेल में डाल दिया गया। आजादी का समर्थन करने वाली एक पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

चीनी पहचान से नफरत

हांगकांग में ज्यादातर लोग चीनी नस्ल के हैं। चीन का हिस्सा होने के बावजूद हांगकांग के अधिकांश लोग चीनी के रूप में पहचान नहीं रखना चाहते हैं। खासकर युवा वर्ग। केवल 11 फीसद खुद को चीनी कहते हैं। जबकि 71 फीसद लोग कहते हैं कि वे चीनी नागरिक होने पर गर्व महसूस नहीं करते हैं।

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